हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्या में रह रहे एक व्यक्ति को अपने नाबालिग पुत्र से मिलने की इजाजत दी और कहा कि हर बच्चे को मां और पिता, दोनों का प्यार पाने का बराबर का हक है। देश की तमाम अदालतें पहले भी कई बार ऐसी नसीहतें उन दंपतियों को दे चुकी हैं, जिनके तलाक के मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। क्यों अदालतों के ऐसे निर्णय एक ही मामले तक लागू करके छोड़ दिए जाते हैं? क्यों नहीं उन्हें हर बार के लिए एक नजीर मान लिया जाता? क्यों हर बार अपने बच्चों से मिलने के लिए परिवादी को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ता है? न्यायपालिका के अलावा सरकार के लिए भी जरूरी है कि वह इस मसले पर ध्यान दे।
अदालतों में ऐसे हजारों मामले लंबित पड़े हैं और जिनके निपटने में वषार्ें गुजर जाते हैं। ऐसे में, परवरिश की लड़ाई में सबसे अधिक खामियाजा उन बच्चों को भुगतना पड़ता है, जिनका उस मामले में कोई दोष नहीं होता। अलबत्ता तो पति-पत्नी के बीच ऐसी नौबत आनी ही नहीं चाहिए, अगर ऐसा होता भी है, तो अपने अहं की लड़ाई में बच्चों को मोहरा बनाकर एक-दूसरे को चोट पहुंचाने की प्रवृत्ति घातक है। डेली टेलीग्राफ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका और यूरोप में 30 प्रतिशत तक तलाक ऐसे होते हैं कि पिता का संतान से संपर्क पूरी तरह टूट जाता है। वहां के स्वास्थ्य व विकास सर्वेक्षण ने बताया कि टूटे हुए परिवारों के बच्चों में शिक्षा में पिछड़ने, भरोसे की कमी और नशा करने की प्रवृत्ति सामान्य से अधिक पाई गई है।
विवाह-विच्छेद और बच्चे ऐसे संवेदनशील विषय हैं, जिनके संबंध में किसी एक निश्चित परिपाटी को नहीं अपनाया जा सकता, मानवीय भावनाएं किसी परिभाषा में नहीं बंध सकतीं। दो व्यक्ति जो एक-दूसरे से किसी भी मुद्दे पर सहमत न हों, और उनके मध्य कड़वाहट और घृणा हो, तो उनका एक छत के नीचे रहना किसी भी रूप में उचित नहीं है, क्योंकि शोध यह बताते हैं कि माता-पिता के बीच निरंतर होते झगड़े बच्चों के भीतर डर और अवसाद को पैदा करते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों की बेहतरी इसी में है कि वे ऐसे माहौल से दूर रहें। ब्रिटेन में 2008 में 12,877 बच्चों पर हुए शोध में पाया गया कि तनावग्रस्त माहौल के मुकाबले वह एकल अभिभावक के साथ स्वयं को अधिक खुश महसूस करते हैं।
मौजूदा कानून के अनुसार, पांच साल तक के बच्चे की कस्टडी यानी उनका संरक्षण मां के पास होना चाहिए। कस्टडी के केस पर अदालत महीने-पंद्रह दिन में बच्चे से पिता को मिलने का एक निश्चित दिन मुकरर्र कर देती है। पर देखने में आया है कि आपसी रिश्तों की कड़वाहट के चलते मां और उसके घरवाले बच्चे को पिता के खिलाफ कर देते हैं। इसलिए अधिकतर मामलों में पिता के स्वाभाविक अभिभावक होने पर भी बच्चे की कस्टडी मां के पास रहती है। इस पहलू का एक भावनात्मक पक्ष यह भी है कि अदालत द्वारा सामान्यत: यह विश्वास किया जाता रहा है कि बच्चा पिता की अपेक्षा मां से अधिक जुड़ा होता है। आंकडे़ भी यही बताते हैं कि कस्टडी के केस में बच्चे मां को ही सौंपे जाते हैं।
कानून की इन पेचीदगियों के चलते बच्चे मां या फिर पिता के प्यार से वंचित रह जाते हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि विचारों का टकराव और अलगाव पति-पत्नी का होता है, बच्चों का नहीं, इसलिए अगर तलाक किसी दंपति के लिए अपरिहार्य हो जाए, तब भी उन्हें अपने बच्चों को वही प्यार और संरक्षण देना चाहिए, जो बच्चों का अधिकार है और उनके भविष्य के लिए जरूरी भी।
विधि आयोग ने दो वर्ष पूर्व केंद्र सरकार को सौंपी अपनी 157वीं रिपोर्ट में तलाकशुदा दंपतियों के बच्चों की परवरिश को लेकर कई सिफारिशें की थीं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में तलाकशुदा दंपति के बच्चों की एकल के मुकाबले साझा परवरिश के कानूनी प्रावधान किए जाने पर जोर दिया था। पर इस संबंध में अभी तक आगे और कुछ नहीं हुआ। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बच्चों के भविष्य को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर ऐसे सभी फैसलों की समीक्षा कर कानूनों में संशोधन करें, ताकि भविष्य में लोगों को कोर्ट के दरवाजे बार-बार न खटखटाने पड़ें।
ऋतु सारस्वत
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
साभार -हिन्दुस्तान
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