विश्वविद्यालयों को दिया गया यह निर्देश आधा-अधूरा ही है कि वे हर तीन साल में अपने पाठ्यक्रम की समीक्षा कर उसे बेहतर बनाने का काम करें। यह तो वह निर्देश है जिसे कम से कम एक-डेढ़ दशक पहले दिया जाना चाहिए था। यदि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब जाकर इस तथ्य से अवगत हो पाया है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम घिसा-पिटा और बदलते वक्त की जरूरत के हिसाब से अनुपयोगी होने के साथ-साथ रोजगार परक भी नहीं है तो फिर इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें उच्च शिक्षा की बदहाली का कोई ज्ञान नहीं। आवश्यक केवल यह नहीं है कि विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम बेहतर बनाने का काम प्राथमिकता के आधार पर करें, बल्कि यह भी है कि वे पठन-पाठन के माहौल को भी सुधारें। ऐसा इसलिए, क्योंकि आज अधिकांश विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन का सही माहौल मुश्किल से ही नजर आता है। न तो औसत छात्र में पढ़ने की रूचि है और न ही औसत शिक्षकों में पढ़ाने की। यही कारण है कि तमाम विश्वविद्यालय डिग्री बांटने और बेरोजगारों की फौज खड़ी करने का केन्द्र बन गए हैं। चूंकि इनमें से ज्यादातर युवा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से लैस नहीं होते इसलिए उद्योग-व्यापार जगत यह पाता है कि वे उनके लिए उपयुक्त नहीं। एक समस्या यह भी है पिछले कुछ वर्षों में तेजी से खुले निजी क्षेत्र के काॅलेज और विश्वविद्यालय भी सतही शिक्षा देने में लगे हुए हैं। चूंकि अच्छी शिक्षा प्रदान करने वाले काॅलेज और विश्वविद्यालय मुट्ठी भर ही हैं इसलिए बड़ी संख्या में छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश का रूख करते हैं। उनकी पढ़ाई पर अरबों रूपये की राशि खर्च होती है और वह भी विदेशी मुद्रा के रूप में। ऐसा नहीं कि हमारे नीति-नियंता इस स्थिति से परिचित न हों, लेकिन उनकी ओर से उच्च शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए ठोस कदम उसी तरह नहीं उठाए गए, जिस तरह प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के मामले में भी नहीं उठाए जा सके हैं। जो कदम उठाए भी गए वे अपर्याप्त साबित हुए। केन्द्र सरकार की ओर से चाहे जैसे दावे क्यों न निकल जाएं, सच्चाई यही है कि शिक्षा में सुधार का उनका एजेंडा आगे बढ़ता नहीं दिख रहा। क्या यह विचित्र नहीं कि ढ़ाई साल बाद भी नई शिक्षा नीति का कुछ अता-पता नहीं। अगर नई शिक्षा नीति आने में और देर होती है तो वह कब लागू होगी? यह भी अजीब है कि शिक्षा में सुधार के मोर्चे पर उल्लेखनीय काम भी नहीं हुआ और फिर भी सरकार पर ऐसे आरोप लग रहे हैं कि वह शिक्षा का भगवाकरण कर रही है। अच्छा होगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें भी यह समझें कि हर स्तर पर शिक्षा के ढांच में आमूल-चूल परिवर्तन करने की जरूरत है और इसी की पूर्ति इक्का-दुक्का कदमों से नहीं चलने वाली। शिक्षा के मामले में कुछ लीक से हटकर क्रांतिकारी फैसले लेने की सख्त जरूरत है। समझना कठिन है कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जिन काॅलेजों की अपनी साख है उन्हें विश्वविद्यालय का दर्जा देकर उन पर अन्य विश्वविद्यालयों की दशा-दिशा सुधारने की जिम्मेदारी डाली जाए ?
साभार - दैनिक जागरण
Comments (0)