सरकारी स्कूलों से दूर होते बच्चे

दिल्ली के पब्लिक स्कूलों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक फैसला दिया है। फैसले के मुताबिक, जिन पब्लिक स्कूलों को रियायती दर पर जमीनें मिलीं हैं, वे अनाप-शनाप ढंग से फीस नहीं बढ़ा सकते। जब से छठा वेतन आयोग लागू हुआ है, तब से निजी स्कूलों पर भारी फीस बढ़ाने का आरोप है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान चूंकि आम आदमी पार्टी ने पब्लिक स्कूलों की फीस बढ़ोतरी को भी एक मुद्दा बनाया था, लिहाजा सत्ता संभालते ही अरविंद केजरीवाल सरकार ने पब्लिक स्कूलों की मनमानी फीस बढ़ोतरी पर लगाम लगाने की कवायद शुरू कर दी थी। इसी के खिलाफ निजी स्कूल पहले उच्च न्यायालय और बाद में वहां से मुंह की खाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय गए थे।


           यह मामला बेशक दिल्ली का है, पर इसके नतीजे पूरे देश के निजी स्कूलों पर पड़ेंगे। अगर उन्होंने रियायती दर पर जमीनें ली है, तो उन्हें अब अनाप-शनाप फीस बढ़ोतरी पर जवाब देना होगा। लेकिन एक सवाल यह उठ रहा है कि आखिर पब्लिक स्कूलों का खर्च चलेगा कैसे। अगर उन्हें फीस बढ़ाने की अनुमति नहीं दी गई, तो क्या वे गुणवत्ता युक्त शिक्षा जारी रख सकेंगे? यह कटु सत्य है कि भारी-भरकम खर्च, अध्यापकों की गुणवत्ता युक्त प्रशिक्षण व्यवस्था और योग्यताओं के बावजूद सरकारी स्कूलों का प्रदर्शन निजी स्कूलों के मुकाबले कमजोर है। गैरसरकारी संस्था प्रजा ने दिसंबर, 2016 तक के दिल्ली के स्कूलों के जो आंकड़े दिए हैं, वे राजधानी दिल्ली के स्कूलों की गिरती हालत को ही बयान करते हैं। सिर्फ 2015-2016 के सत्र के दौरान दिल्ली के सरकारी स्कूलों के एक लाख 45 हजार 161 बच्चों ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी।


                दिल्ली में सरकारी शिक्षा व्यवस्था तीन तरह की है। यहां स्थानीय निकाय, मसलन नगर निगम और नई दिल्ली नगरपालिका परिषद जैसी स्थानीय इकाइयों के स्कूल चलते हैं, दिल्ली सरकार के सीधे नियंत्रण वाले स्कूल हैं, तो केंद्र सरकार के अधीन चलने वाले केंद्रीय विद्यालय भी हैं। पर सबसे बुरी हालत स्थानीय निकायों के स्कूलों की है। अध्ययन बताता है कि दिल्ली के आर्थिक रूप से कमजोर तबके का भी नगर निगम के स्कूलों से मोहभंग हो रहा है।


           वर्ष 2013 में दिल्ली के नगर निगमों के स्कूलों में 8,69,540 बच्चों का नामांकन हुआ,जो अगले साल घटकर 8,39,040 रह गया। इसके अगले साल तो यह 8,18,707 रह गया। यानी 2013 के मुकाबले 2014 में दाखिले में चार प्रतिशत और 2014 के मुकाबले 2015 में दो प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इसमें अगर पहले साल को छोड़ दें, तो अगले साल से आम आदमी पार्टी की सरकार काम कर रही है। यह स्थिति तब है, जब दिल्ली सरकार ने 2015-16 के बजट में प्रति छात्र करीब 43,289 रुपये खर्च किए। यह खर्च आगामी साल में बढ़कर 57,917 रुपये हो जाएगा। नगर निगम के स्कूलों में भी प्रति छात्र होने वाला खर्च बढ़ेगा। जाहिर है कि सरकारी स्तर पर इतनी रकम खर्च होने के बावजूद सरकारी स्कूलों के प्रति अभिभावकों में आकर्षण नहीं बढ़ पा रहा। जब राजधानी से ऐसे आंकड़े सामने आ रहे हैं, तो देश के पिछड़े कहे जाने वाले इलाकों में प्राथमिक शिक्षा की क्या दशा होगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ऐसे में, क्या शिक्षा को निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए? निजीकरण इसका हल नहीं हो सकता। इसके बजाय एक संतुलित नीति तैयार करने और अध्यापकों को जवाबदेह बनाने की जरूरत है।


 उमेश चतुर्वेदी


सौजन्य- अमर उजाला।

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