मासूमों पर आफत

भारत में, जहां 31 करोड़ से ज्यादा आबादी सिर्फ छात्रों की हो और इनमें करोड़ों छोटे बच्चे हों, वहां कभी सोचा ही नहीं गया कि आखिर इतनी बड़ी आबादी को स्कूलों तक सुरक्षित कैसे पहुंचाया जाए? सच है कि हमारी पढ़ने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी संसाधनों का मोहताज है। कहीं इसे नदी-नाले पार करके स्कूल पहुंचना पड़ता है, तो कहीं लंबी दूरी चलकर। शहरी आबादी को जरूर स्कूली बस या वैन सेवा उपलब्ध है, पर वह कितनी सुरक्षित है, इस पर बार-बार बहस करनी पड़ती है। यानी हमारे पास बच्चों को स्कूल तक सुरक्षित पहुंचाने की कोई सुविचारित नीति नहीं है। एटा में हुए स्कूली वैन हादसे के बाद यह सवाल फिर मौजूं हो गया है। हादसे में कई बच्चों की जानें गईं, कुछ अन्य लोगों की भी। इस हादसे का दोष किस पर मढ़ा जाए? सुबह की धुंध इसका एक कारण रही होगी, मगर क्या यह सच नहीं है कि चालक अनियंत्रित था और इसी कारण टक्कर इतनी तेज हुई कि आवाज दूर तक सुनी गई? हादसे का बड़ा जिम्मेदार स्कूल का अति-उत्साही प्रबंधन भी है, जिसने सर्दी और कुहासे के कारण प्रशासन की ओर से घोषित बंदी के बावजूद स्कूल खोलने की गैर-जिम्मेदाराना हरकत की। फिलहाल स्कूल की मान्यता रद्द करके प्रबंधन पर मामला दर्ज कर लिया गया है।


इस हादसे ने कुछ माह पूर्व भदोही में हुए उस हादसे की याद ताजा कर दी, जब एक स्कूल वैन मानव रहित रेल क्रॉसिंग पर एक ट्रेन से जा टकराई थी। उस हादसे में बचे बच्चों ने बताया था कि उनकी वैन का ड्राइवर ईयर- फोन लगाकर गाने सुनता हुआ चलता था और गाना खत्म होने के पहले उन्हें स्कूल या घर पहुंचा देने का दम भरता था। उस ड्राइवर को कितनी ही बार गांव वालों ने रेलवे क्रॉसिंग पर चेताया था, लेकिन उसने किसी की न सुनी। सब उसकी गलतियों की अनदेखी करते रहे थे। इस बार भी वैसी ही अनदेखी सामने आई है, 27 सीटर वैन में 40 बच्चे भरे गए थे। यह रोज होता था, मगर किसी ने आवाज नहीं उठाई।


कई सवाल हैं। स्कूल से भी और स्कूल व अभिभावक की मिली-जुली जिम्मेदारी पर भी। कितने स्कूल हैं, जहां शिक्षक-अभिभावक मीटिंग में वाहन की गड़बड़ी, चालक की अनियमितता पर बात होती है? कितने अभिभावक हैं, जो मनमाने तरीके से बच्चे ढोने की शिकायत करते हैं और सुनवाई न होने पर वैन बदल देते हैं या बच्चों को स्कूल पहुंचाने का वक्त खुद निकालते हैं? कितनों को पता है कि स्कूल बस या वैन में ‘स्पीड गवर्नर’ होना चाहिए, पर नहीं होता? होने को तो स्कूल बसों में सीसीटीवी भी चाहिए, पर शायद ही ऐसा होता हो। कितने स्कूलों में चालक के वेतन को लेकर इतनी संजीदगी है, जो उन्हें कोई और काम करने को मजबूर न करे और वे अपनी नींद पूरी कर सकें? कितने अभिभावक हैं, जो अपने बच्चे को वैन तक छोड़ने और लेने के लिए पहले से खड़े रहते हैं, ताकि वैन से उतरने के बाद बच्चा किसी हादसे का शिकार न हो? बेंगलुरु के कई स्कूलों में यह व्यवस्था है कि बच्चे को लेने अभिभावक यदि समय पर नहीं पहुंचते हैं, तो बस बच्चे को लेकर वापस चली जाती है और अभिभावकों को वाजिब कारण बताकर फिर स्कूल से ही बच्चे को लेना पड़ता है। जाहिर है, इस पूरी कवायद में स्कूल का काम थोड़ा बढ़ता है, लेकिन एक हादसे के बाद उठाए गए इस कदम के नतीजे बहुत अच्छे आए हैं। क्या हमें ऐसा कुछ नहीं सोचना चाहिए? हां, बड़ा सवाल उस तंत्र से भी होना चाहिए, जिसकी जिम्मेदारी ये सारी व्यवस्थाएं सुनिश्चित करने की है। उस तंत्र की कार्य-प्रणाली की भी पड़ताल होनी चाहिए। यदि ऐसा होने लगे, तो न स्कूल मनमानी कर पाएंगे, न वाहन चालक। अभिभावक भी सचेत रहेंगे।


सौजन्य- हिन्दुस्तान

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