शिक्षा में संपूर्ण सुधार का इंतजार

केंद्र सरकार के अधीन केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई के कुछ हालिया फैसले अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। 2016 समाप्त होते-होते इस बोर्ड ने फैसला किया कि वर्ष 2018 में दसवीं की बोर्ड परीक्षा फिर आरंभ होगी। 2011 में दसवीं की बोर्ड परीक्षा में बैठने का फैसला विद्यार्थियों और स्कूलों के ऊपर छोड़ दिया गया था, लेकिन व्यवहार में बोर्ड लगभग समाप्त हो गया था। इससे भी ज्यादा महत्व का फैसला है आठवीं तक फेल न करने की नीति में बदलाव। बोर्ड परीक्षा से कई गुना ज्यादा परेशानियां और विवाद फेल न करने की नीति पर रहे हैं। देश के कई राज्यों जिनमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा सहित अठारह राज्य शामिल हैं, इस नीति में बदलाव की मांग कर रहे थे। बीच-बीच में राज्यों के शिक्षा मंत्रियों ने भी केंद्र सरकार से तुरंत शिक्षा अधिकार कानून यानी आरटीई में बदलाव की गुहार लगाई। हाल में देश के लगभग तीन सौ प्रधानाचार्यों के साथ मिल बैठकर फिर से इसके पक्ष-विपक्ष में राय जानी गई तब पूर्ण लोकतांत्रिक ढंग से कुछ बदलाव करने का फैसला लिया गया। केंद्र सरकार द्वारा गठित पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली समिति ने बीते साल अपनी रिपोर्ट में फेल न करने की नीति को बदलने की सलाह दी थी। उम्मीद है इस पूरे विमर्श के बाद चौथी कक्षा तक फेल न करने की नीति यथावत रहेगी और पांचवी से आठवीं तक बच्चों को परीक्षा पास करके ही अगली कक्षा में भेजा जाएगा। इस नीति में भी यथानुकूल सुधार किए गए हैं जैसे हर बच्चे को तीन बार मौका देना जिससे वह आवश्यक अर्हता सक्षमता प्राप्त कर ले। साथ ही स्कूल विशेष पढ़ाई का इंतजाम भी करेंगे। देखा जाए तो यह पुरानी प्रणाली को ही और बेहतर करने की कोशिश है।
बच्चों को फेल न करने की नीति के पीछे एक सदिच्छा यह थी कि गरीब साधनहीन और वंचित तबकों के बच्चे फेल होने के बाद अक्सर स्कूल छोड़ देते हैं। बच्चे कच्ची उम्र में मानसिक हताशा और हीनभावना के भी शिकार होते थे। विकल्प ‘सतत एवं पूर्ण मूल्यांकन’ (सीसीई) जरूर था, लेकिन न उसके अनुपालन की तैयारी प्रशिक्षण स्कूलों के पास थी और न ही सरकार के पास। नतीजा शिक्षा की गुणवत्ता बड़ी तेजी से गिरी और अनुशासन भी बिगड़ा। सरकारी स्कूल तो खास तौर पर अव्यवस्था के शिकार हो गए। नए बदलाव से सभी के हितों का संवद्र्धन होने की उम्मीद की जाती है। दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव भाषा नीति में है। तीन भाषा सूत्र अब दसवीं तक लागू होगा। अभी तक यह आठवीं तक ही लागू था और वह भी बेमन से। नई नीति के तहत मातृभाषा हिंदी और अंग्रेजी सभी के लिए दसवीं तक अनिवार्य होगी। तीसरी भाषा के रूप में उत्तर के छात्र दक्षिण की कोई भाषा पढ़ेंगे। विदेशी भाषा जैसे जर्मन, चीनी, रूसी चौथी भाषा के रूप में पढ़ने की छूट होगी। इससे मातृभाषाएं भी समृद्ध होगी और हिंदी को राजभाषा एवं संपर्क भाषा के रूप में आगे बढ़ने का मौका भी मिलेगा। अच्छा हो कि भाषा के मुद्दे पर राजनीति न करके उत्तर, दक्षिण के राज्य मिलकर एक साथ आगे बढ़ें। भारतीय भाषाएं शिक्षा और समाज के हित में मिलकर ही अंग्रेजी के अनावश्यक वर्चस्व का मुकाबला कर सकती हैं। वक्त की जरूरत को देखते हुए अंग्रेजी को अछूत नहीं माना जा सकता, लेकिन उसके आधिपत्य से बचने की आवश्यकता है।
एक और निर्णय उल्लेखनीय है। हालांकि इस पर कम ध्यान गया है, लेकिन प्राचार्यों की नियुक्ति के लिए समुचित योग्यता परीक्षा का फैसला सराहनीय है। अभी तक का अनुभव यही रहा है कि निजी स्कूलों में प्राचार्य पद बिना योग्यता के पुत्र, पुत्री या अन्य निकट संबंधियों को दे दिया जाता है। ऐसा होना किसी भी लोकतांत्रिक संस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सुधारों की प्रक्रिया का पक्ष भी जान लेना जरूरी है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के फैसले पर केंद्र सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय कानून मंत्रालय के साथ विचार विमर्श करके नए नियम जारी करेगा, लेकिन उन पर संसद की मुहर लगनी जरूरी है।
फेल न करने की नीति, दसवीं की बोर्ड परीक्षा, सीसीई आदि शिक्षा अधिकार कानून, 2009 से बंधे हैं। यह कानून पहली अप्रैल 2010 से लागू हुआ था। उम्मीद है कि संसद में इस कानून में संशोधन संबंधी विधेयक के पास होने में कोई दिक्कत नहीं आएगी, क्योंकि अधिकांश राज्यों की ऐसी मांग कई वर्षों से रही है। केंद्र सरकार और संसद के पास पूरे देश और समाज के हित में कुछ और महत्वपूर्ण फैसले लेने का भी मौका है। आरटीई अधिनियम अच्छा है, लेकिन वह समानता के बुनियादी सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। इसमें गरीब बच्चों के लिए निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का प्रावधान जरूर है, मगर अल्पसंख्यक स्कूलों को न जाने क्यों इससे बाहर छोड़ दिया गया है? भेदभाव की ऐसी नीतियां सामाजिक असंतोष को जन्म देती हैं। जब शिक्षा हर बच्चे का मूल अधिकार है तो अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की शिनाख्त क्यों? एक सवाल यह भी है कि जम्मू-कश्मीर शिक्षा अधिकार कानून से बाहर क्यों है? अच्छी बातों को स्वीकारने में भी आपत्ति क्यों? देश के जाने माने शिक्षाविद अनिल सद्गोपाल और उनके साथी लगातार यह मांग करते रहे हैं कि शिक्षा अधिकार कानून को दसवीं तक प्रभावी बनाया जाए। यह स्पष्ट ही है कि इसके पहले इस कानून को दुरुस्त करने की जरूरत है। अब जब शिक्षा अधिकार कानून में संशोधन के लिए कदम बढ़ाए जा रहे हैं तो फिर सरकार की दूरदर्शिता और निर्णयात्मकता इसी में है कि सभी जरूरी सुधार उसमें शामिल किए जाएं। सबसे अच्छा तो यह होगा कि समान शिक्षा की ओर भी कुछ ठोस कदम और बढाएं जाएं। इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अगस्त 2015 में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया था, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार उस पर चुप्पी साधे रही। केंद्र सरकार इस मामले में पहल करके शिक्षा की पूरी तस्वीर बदल सकती है। मौजूदा नियम-कानून न तो निजी स्कूलों को फीस बढ़ाने से रोकते हैं और न ही मातृभाषाओं को पीछे करके विदेशी भाषा पढ़ाने से। ऐसा न हो सके, इसके लिए समुचित कदम उठाए जाने चाहिए। सुब्रमण्यम समिति की कुछ सिफारिशों को तुरंत ठंडे बस्ते से निकाल कर अमल में लाने की जरूरत है। यह ठीक नहीं कि मोदी सरकार तीन साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है, लेकिन शिक्षा के मोर्चे पर अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। स्पष्ट है कि सरकार और विशेष रूप से मानव संसाधन मंत्रालय को तेजी दिखाने की जरूरत है।


[ लेखक प्रेमपाल शर्मा, कथाकार एवं शिक्षा मामलों के जानकार हैं ]


साभार- दैनिक जागरण


 

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