सिरमौर बनने की ओर अग्रसर


शिक्षा की उपयोगिता, आवश्यकता तथा क्षमता पर सभी का अटूट विश्वास है। विश्व यह मानता है कि भविष्य उन्हीं देशों के लिए सुनहरा होगा जिनकी ज्ञान सम्पदा अपनी गतिशीलता तथा सम-सामयिक संदर्भिता बनाए रख सकेगी। ऐसा तो बहुत पहले से ही माना जाता है कि भविष्य में प्रभुता/सत्ता उन्हीं के पास होगी जिनके पास ज्ञान-भंडार होंगे और जहां ज्ञानार्जन की सतत प्रक्रिया उचित संसाधन तथा समर्थन पाएगी। अंततः हर उस देश को शिक्षित, कौशल-युक्त तथा विचारवान युवा तैयार करने होंग जो प्रगति के रास्ते पर अविरल चलते हुए अपने हर निवासी का जीवन स्तर ऊंचा उठाना चाहता है। भारत ने इसे आजादी के पहले से ही पहचाना, सविधान में साहसपूर्ण प्रावधान किए कि सब तक शिक्षा पहुंच जाए। उपलब्धियां कमतर नहीं हैं मगर समय के साथ आवश्यकताएं न केवल बदली हैं बल्कि  बहुमुखी पटल पर बढ़ी भी हैं। संक्षेप में हमारी शिक्षा व्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौति उसमें गुणवत्ता सुधारने की है। देश के सामने इस साल नई शिक्षा नीति आने की पूरी संभावना है, अतः यह अत्यन्त सामयिक तथा महत्वपूर्ण अवसर है एक ऐसी संकल्पना को साकार स्वरूप देने का जो एक गतिशील शिक्षित समाज का निर्माण कर सके, जिसमें कौशलयुक्त व्यक्तियो की कमी न हो, जिसमें रूचियों के आधार पर प्रतिभा विकास के अवसर सभी बच्चों तथा युवाओं को मिल सकें। जिसमें ’यावाद्जीवेत अधीयते विप्रः’ (समझदार व्यक्ति जीवन पर्यन्त सीखता है)  को सकार करने की प्रेरणा और अवसर उपलब्ध हों।
    मूल रूप से पिछलें दशकों में शैक्षिक विकास की जिस अवधारणा को देश ने स्वीकार किया है, उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता अब सभी महसूस करते हैं। इसमें भारतीयता, भारत की ज्ञान अर्जन की परंपरा, गुरू-शिष्य संबंध, शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता तथा समाज के नई पीढ़ी के प्रति कर्तव्य मानव-प्रकृति के संवेदनशील संबंध, वैशाली, लिच्छवी जैसे गणतंत्रों से चली प्रजातांत्रिक अवधारणाओं का पुनरावलोकन करना हमारी समझ को निखारेगा। नई शिक्षा नीति में इन तत्वों पर गहन विचार-विमर्श करने के बाद ही निर्णय लेना होगा। हर क्षेत्र में गुण्वत्ता अंततः प्रारंभिक वर्षों में प्रदान की गई शिक्षा की उपयुक्तता पर ही निर्भर होती है। इन्हीं के आधार पर व्यक्ति अपने जीवन मूल्य तथा नैतिक आधार निर्धारित करता है। प्रत्येक शिक्षा संस्था में-स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक-वहां कार्यरत आचार्य, वहां का प्रबंधन, कार्य-संस्कृति और आपसी संबंध बच्चों पर प्रभाव डालते हैं। हर अध्यापक अपने विद्यार्थियों के लिए आदर्श-आइकन होता है। ऐसा वह तभी बन पाता है जब वह जाने और माने कि वह नई पीढ़ी और भारत के भविष्य निर्माण में भागीदार है। हमारे स्कूल सामाजिक परिर्वतन के केन्द्र बनें, समाज तथा शिक्षा के बीच सहयोग के उदाहरण बने, यहां बच्चे वे मानवीय तथा आध्यात्मिक मूल्य सीखें जिनके लिए भारत की शिक्षा और सभ्यता सारी दुनिया में सराही जाती रही है। नए वर्ष में ऐसे प्रयास तेजी से प्रारंभ होने चाहिए जिससे विश्वविद्यालय प्राचीन ज्ञान तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान-तकनीकी का समन्वय केन्द्र बनकर उभरें। भारत की शिक्षा व्यवस्था पहले सर्वोच्च शिखर पर थी, उसे वहां फिर से पहुंच सकने के लिए अपनी आंतरिक शक्ति और क्षमता को पहचानना होगा। देश के पास संसाधन हैं, क्षमता है, सरकार है, अनुभव, ज्ञान तथा बुद्धितत्व उपलब्ध है। यहां विद्वानो, विचारकों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों के बीच ऐसा नैतिक तथा बौद्धिक नेतृत्व उभरना चाहिए जो इस सब को समान्वित कर सके, उसके सदुपयोग के रास्ते तय कर सके और भारतीय शिक्षा व्यवस्था के कायाकल्प में विश्वास पैदा कर सके। मैं मानता हूं कि ऐसा होने की पूरी संभावना है।



                        लेखक-जगमोहन सिंह राजपूत



                        साभार-दैनिक जागरण

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