मानव संसाधन मंत्री द्वारा नई शिक्षा नीति बनाने के लिए पुनः नई पहलकदमी की घोषणा हुई है। किन्तु यह सार्थक हो, इस के लिए तीन बातों पर ध्यान रखना जरूरी है। पहला, दिखावे में न पड़ना। विगत कई दशकों से शिक्षा विमर्श और, नतीजन, शिक्षा दस्तावेज भी प्रायः बनावटी बातों से भरे रहे हैं – बिना चिंता किए कि उसे लागू कैसे होना है। दस्तावेज लिखने वाले स्वयं अनौपचारिक रूप में बताते हैं कि ‘वे बड़ी-बड़ी बातें तो पोइट्री है’ और असली बात केवल पैसे आदि की है, कि किस मद में कितना पैसा देना है, वह पैसा कहाँ से लेना है, उसे कैसे, किन के दवारा खर्च करना है। अतः नयी शिक्षा नीति बनाने में दिखावे वाली, कागजी लफ्फाजी, से बचना जरूरी होना चाहिए।
दूसरी, नकली या कागजी उपलब्धियों का आँकड़ा बनाना, दिखाना शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ, कहा जाता है कि अमुक राज्य में इस वर्ष इतने लाख बच्चों ने आठवीं कक्षा पास की। किन्तु वास्तविकता क्या है? उन बच्चों में कई लाख ऐसे हैं जिन्हें अपना नाम लिखना भी नहीं आता!
इस दुर्गति का कारण यह है कि वर्षों पहले, यह विचित्र निर्देश जारी किया गया कि किसी बच्चे की आठवीं कक्षा तक प्रोन्नति न रोकी जाए। यह निस्संदेह वैसे ही शिक्षाशास्त्रियों की सलाह पर किया गया होगा जिन्हें विदेशी अंध-नकल की आदत है। ऐसे शिक्षाशास्त्रियों को दूर से नमस्कार कर लेना चाहिए। हमें वास्तविक शिक्षित बच्चे चाहिए।
यही कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लिए भी सही है। इस लेखक ने एक बड़े विश्वविद्यालय के एम.ए. परीक्षार्थियों की सौ कॉपियां देखीं, जिन में मुश्किल से दो-तीन ऐसी थीं जिस में एक पाराग्राफ भी शुद्ध या समझ में आने लायक लिखा हुआ था। यह एक हिन्दी भाषी राज्य के विश्वविद्यालय की हिन्दी में लिखी एम. ए. छात्रों की कॉपियाँ थीं! वे सभी उत्तीर्ण किए गए, क्योंकि यही निर्देश था। आखिर हम किसे धोखा दे रहे हैं, और किसलिए?
नई शिक्षा नीति बनाते हुए सरकार इस नकली गोरखधंधे को समाप्त करे। हम स्वयं को, अपने बच्चों को, और दुनिया को धोखा दे रहे हैं। यह तो हमारे देश की विशाल आबादी है, जिस से यह घृणित, लज्जाजनक और बचकानी धोखाधड़ी छिपी रही है। क्योंकि सभी उत्तीर्ण में पाँच प्रतिशत भी, जो अपनी प्रतिभा, निष्ठा और परिवार की जागरूकता के कारण, वास्तव में उत्तीर्ण होते हैं, इतनी बड़ी संख्या हो जाती है कि देश-विदेश में उन के कार्य हमारी लज्जा छिपा लेते हैं।
तीसरी बात है, शिक्षा और रोजगार-ट्रेनिंग का घाल-मेल। यह साफ-साफ समझना चाहिए कि हरेक को रोजगार होना और उस का शिक्षित होना – यह दोनों दो बातें हैं। अशिक्षित व्यक्ति भी बड़े भारी रोजगार का संचालक हो सकता है, और बढिया रोजगार में लगा हुआ व्यक्ति भी निपट अशिक्षित या कुशिक्षित हो सकता है। इस नाजुक बिन्दु को ठीक-ठीक समझना जरूरी है। नहीं तो हम कभी न समझ सकेंगे कि तरह-तरह के घोटालों, गड़बड़ियों, व्यभिचार, कुकर्मों, आदि में लगे हुए लोगों में कथित सुशिक्षितों की संख्या इतनी बड़ी क्यों है?
यह जरा समझने की बात है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) का ध्येय वाक्य है – ‘विद्ययामृतमश्नुते’। हमारे बड़बोले बौद्धिकों और शिक्षाशास्त्रियों में बिरले ही होंगे, जो इस का अर्थ या स्त्रोत भी बता सकें! यह उदाहरण है कि हमारा चालू शिक्षा-विमर्श और शिक्षा योजनाएं, आदि बनाने वाले कितना खोखले हैं।
जाने-माने शिक्षाविद् कहलाने वाले कई लोग ‘हमारा धर्म-चिंतन’, ‘संस्कार’, ‘भारतीय गौरव’, ‘देशभक्ति’, जैसे शब्दों का उल्लेख होते ही संकोच में पड़ जाते हैं। मानो किन्हीं दकियानूसी विचारों की चर्चा हो रही हो, जिन से उन की बौद्धिकता पर मिट्टी पड़ जाएगी! उन के विमर्श, लेखन, दस्तावेज, आदि में ‘डाइवर्सिटी’, ‘मायनोरिटी’, ‘सेक्यूलरिज्म’, ‘जेंडर’, ‘दलित’, ‘मल्टी-कल्चरल’ जैसे जुमलों का दर्जनों बार प्रयोग सुना जा सकता है। किंतु सत्यनिष्ठा, ब्रह्मचर्य, सेवा, अनुशासन, संयम, शौर्य, देश-रक्षा, आदि का एक बार भी नहीं।
यह बच्चों की सहज भावना के भी विरुद्ध है। जहाँ डाइवर्सिटी, मार्जिनलाइज्ड, सेक्यूलरिज्म, आदि राजनीतिक, दुरुह एवं धूर्ततापूर्ण शब्दों को समझना उन के लिए असंभव है (आयु-कारक सामाजिक अनुभव की कमी से); वहीं सत्यनिष्ठा, वीरता और देश-प्रेम भाव उन में सहज, स्वभाविक होता है। और ठीक इन्हीं भावों को शिक्षा दस्तावेजों, पाठ्यचर्या, आदि में उपेक्षित किया गया है। इन के बदले संकीर्ण या हानिकारक मूल्य सिखाने की कोशिश रही है, जो मतवादीकरण या इंडॉक्ट्रिनेशन हैं। इस के असंख्य उदाहरण हमारे चालू शिक्षा दस्तावेजों और पाठ्यपुस्तकों में देख सकते हैं। इन से बच्चों का आत्मिक विकास कुंठित होता है।
यह मतवादीकरण ही है कि बच्चों की शिक्षा में स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महामना मालवीय, अज्ञेय, जैसे अनेक महापुरुषों की सुचिंतित सीखों को उपेक्षित किया गया है। जैसे, विवेकानन्द ने कहा था, “संस्कृत शब्दों में अदभुत शक्ति भरी हुई है। उन के उच्चारण मात्र से शक्ति का बोध होता है”। उपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे कालजयी शास्त्र विश्व की अनमोल धरोहरों में गिने जाते हैं। उन का पठन-पाठन एक जीवंत सत्संग है जिस से विवेक ही नहीं, शक्ति भी मिलती है। रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि विद्यार्थियों को प्रत्येक दिन कम से एक बार गायत्री-मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।
किंतु ऐसी मूल्यवान सीखों से बच्चों को मानो प्लेग की तरह बचाया गया है। बदले में पश्चिमी अनुकरण या निर्देश पर नितांत भौतिकवादी और सामाजिक विभेदकारी, दुराग्रही पाठ पढ़ाने की जिद रही है। ऐसी शिक्षा राजनीति केंद्रित रही है। यह बच्चों को आत्मिक रूप से निर्बल, नितांत राज्याश्रित और अकेला ‘उपभोक्ता’ बनाती है। इस घातक प्रवृत्ति को रोकना जरूरी है।
यह सब इसलिए छिपा है क्योंकि शिक्षा के प्रति समझ में ही विकृति आ गई है। ‘शिक्षा को रोजगार से जोड़ो’ के नारे ने शिक्षा को मात्र रोजगार-ट्रेनिंग में बदल दिया है। तदनुरूप सब अधिकांशतः रोजगारी तैयारी करा रहे हैं। चारों तरफ हाई स्कूल, इन्स्टीच्यूट या विश्वविद्यालय के नाम पर केवल वैसे प्रशिक्षण केन्द्र हैं, जहाँ किसी तरह के रोजगार की डिग्री, डिप्लोमा देने या उस के लिए तैयारी का कारोबार चल रहा है। जबकि शिक्षा पाना और रोजगार का प्रशिक्षण दो अलग-अलग चीजें थी, जिस का हर उन्नत समाज में अलग स्थान था। अभी यह गड्ड-मड्ड हो गया है। इस के खतरनाक परिणाम हो रहे हैं और होंगे।
श्रीअरविन्द ने कहा था: “किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन हमेशा तीन गुणों के क्षरण से आरंभ होता है।” ये हैं – विवेकपूर्ण विचार करने की क्षमता, तुलना और विभेद करने की क्षमता, तथा अभिव्यक्ति की क्षमता। इस से समझें कि युवाओं में इन क्षमताओं के विकास की कितनी आवश्यकता है! मगर इन का क्षरण तभी होता है जब ध्यान मुख्यतः केवल सूचनाएं याद करने तथा तकनीकी, व्यवसायिक हुनर प्राप्त करने पर चला जाता है।
उक्त चेतावनी भारत के लिए तो विशेष स्मरणीय है क्योंकि पिछले हजार वर्ष से दस्यु, बर्बर और धूर्त लोग आकर यहाँ उत्कृष्ट सभ्यता-संस्कृति वालों पर अधिकार जमाते रहे हैं। ऐसी विडंबनाओं की विवेचना, तथा निकलने वाले निष्कर्षों का अध्ययन किस इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, बैंकिंग, मेडिकल इन्स्टीच्यूटों में होगा? यदि न हुआ, जैसा नए-नए तकनीकी ‘विश्वविद्यालय’ दिखा रहे हैं, तो पुनः भारत का पराभव नहीं होगा, इस की गारंटी कौन करेगा?
याद रहे, सोने की चिड़िया ही लूटी गई थी! यानी, उद्योग, तकनीक, धन-वैभव से परिपूर्ण भारत ही पराधीन हुआ था। किन के हाथों, कैसे, किन स्थितियों में? यही वे प्रश्न हैं, जिन्हें केवल महान साहित्य, दर्शन, शुद्ध ज्ञान ही समझता और हल करता है। इसी पर कोई भी सभ्यता टिकती, सुरक्षित रहती है।
इस पृष्ठभूमि में उस घातक प्रवृत्ति पर सोचना चाहिए जो केवल धन कमाने के प्रशिक्षण को ही ‘शिक्षा’ का पर्याय बना रही है। भारत के युवा केवल तकनीकी, मशीनी और कार्यालय चलाने वाले मजदूर, प्रबंधक आदि भर बन रहे हैं। उन्हें कितनी ही आय हो रही हो, वे अपने और देश, समाज के वर्तमान और भविष्य के बारे में सोचने-विचारने में असमर्थ होंगे। जिन्हें हमारे शास्त्रों में ठीक संज्ञा दी गई है- ‘मनुष्य रूपेण मृगाः चरन्ति’।
नई शिक्षा नीति को उपर्युक्त बातों का भी संज्ञान लेना और विकृतियों को सुधारना चाहिए।
साभार- नया इंडिया
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