परीक्षाओं का मूल्यांकन

पिछले दो वर्षों से नई शिक्षा नीति पर गहन चर्चा हो रही है। उम्मीद करनी चाहिए कि जल्द ही देश के सामने नई नीति आएगी, जिससे शिक्षा सुधारों को गति मिलेगी। इससे कौशल प्रशिक्षण को भी उचित स्थान मिल सकेगा। नई नीति के आने से पहले भी कई महत्वपूर्ण फैसले लिए जा सकते हैं। इस समय देश में तकनीकी तौर पर 1986-92 की शिक्षा नीति लागू है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम जब 2009 में स्वीकृत हुआ तब कुछ बड़े परिवर्तन उसके द्वारा लाए गए जिनमें कक्षा आठ तक वार्षिक परीक्षा न लेना शामिल था। यानी कक्षा आठ तक हर वर्ष हर बच्चा उत्तीर्ण माना जाएगा, भले ही उसकी शैक्षिक उपलब्धियां कितनी ही सीमित क्यों न हों। उसी समय यह भी निर्णय लिया गया कि कक्षा दस की बोर्ड परीक्षा को ऐच्छिक कर दिया जाएगा। उसकी जगह सतत और समेकित मूल्यांकन किया जाएगा। सभी राज्य सरकारों ने कक्षा आठ तक की परीक्षा तो बंद कर दी, उनके नामांकन के आंकड़े सुधर गए और पहले आठ सालों में स्कूल छोड़ने वालों की संख्या भी कम हो गई। केंद्र सरकार के तहत काम करने वाले सीबीएसई ने कक्षा दस की परीक्षा ऐच्छिक कर दी, जबकि अन्य किसी बोर्ड ने ऐसा नहीं किया। इसके कई कारण थे और सभी शिक्षा से जुड़े हुए नहीं थे यानी अलिखित थे। पिछले तीन-चार वर्षों से इन दोनों निर्णयों पर देशव्यापी चर्चा हो रही है। इसकी ताकत यह रही कि यह जमीन से उभरी है। स्वयं माता-पिता ने पाया कि पांच-छह वर्ष स्कूल जाकर भी उनका बच्चा नाम तक नहीं लिख पाता है, दो अंकों का जोड़-घटाना नहीं कर पाता है। फिर स्कूल भेजने से फायदा क्या? अनेक सरकारी और गैर-सरकारी सर्वेक्षणों से भी गुणवत्ता की घोर कमी उजागर हुई।
ऐसे में केवल नामांकन की वृद्धि और स्कूल न छोड़ने वालों की बढ़ी संख्या सरकारी प्रगति प्रतिवेदनों में तो उत्साह से प्रस्तुत होने लायक होंगी, मगर वे न तो वास्तविकता की परिचायक हैं, न ही प्रगति या विकास की। लिहाजा, इस प्रणाली पर पुनर्विचार करना आवश्यक था। इसी प्रकार कक्षा दस में जो बच्चे बोर्ड परीक्षा का अनुभव प्राप्त नहीं करेंगे, उन्हें जब कक्षा बारह में पहली बार बोर्ड परीक्षा देनी होगी तो वे इसके लिए खुद को पूरी तरह तैयार नहीं पाएंगे। कक्षा बारह के बाद तो प्रतियोगी परीक्षाओं की ‘लाइन’ लग जाती है। कुल मिलाकर इन दोनों निर्णयों से सबसे ज्यादा हानि कमजोर, अल्पसंख्यक, ग्रामीण और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ही हुई। हालांकि हर जगह उन्हीं को प्राथमिकता देने की घोषणाएं लगातार हर दिशा से होती रहती हैं। नासमझी के चलते शिक्षा से जुड़े ये कितने विरोधाभासी फैसले लिए गए थे। इसे अब स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है। हालांकि अब भी कुछ विद्वान इन निर्णयों पर पुनर्विचार के खिलाफ हैं। आशाजनक स्थिति यही है कि सरकार और बड़े बहुमत से शिक्षाविद चाहते हैं कि अब इन निर्णयों को निरस्त करने में देरी नहीं करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य पक्षों को भी समझना आवश्यक है।
किसी बड़े और नामी शिक्षाविद से यदि परीक्षा और विशेषकर बोर्ड परीक्षा पर चर्चा की जाए तो सबसे महत्वपूर्ण विचार यही सामने आएगा कि प्रत्येक बच्चे को उसकी अपनी रुचि के विषय में बिना कोई दबाव डाले, आगे बढ़ने देना चाहिए। अध्यापक को उसी में सहभागिता करनी चाहिए। केवल इस प्रकार ही हर बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा का पूर्ण विकास संभव है, जो कि हर शिक्षा व्यवस्था का एक आधारभूत लक्ष्य होता है। दो-चार अपवादों को छोड़कर हर बच्चे के साथ वही हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। इसके बाद आती हैं बोर्ड की परीक्षाएं, जो अशैक्षिक मान्यताओं के कारण इस समय प्रतिभा कुंठित करने में सबसे अहम भूमिका निभाने की ओर मोड़ दी गई हैं। इसमें सुधार आवश्यक है, न कि इन्हें यकायक समाप्त कर देना। कक्षा दस की परीक्षा बच्चे को यह स्पष्ट कर सकती है कि उसकी रुचि किस दिशा में है और उसकी प्रतिभा किस क्षेत्र में सबसे अधिक चमक सकती है। इसके स्थान पर आज कुल मिलाकर शिक्षा का एक ही उद्देश्य रह गया है कि किस प्रकार बोर्ड परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्रतिशत प्राप्त किया जाए ताकि अगली कक्षाओं में बच्चे को निर्बाध प्रवेश मिल सके। बाकी सब कुछ गौण हो गया है। नैतिकता, मानव मूल्यों से परिचय और उन्हें आत्मसात करना, देश की विरासत, इतिहास, ज्ञान अर्जन और सर्जन तथा उपयोग की परंपरा से परिचय का वर्णन तो पाठ्यक्रम में अवश्य मिल जाता है, मगर यह सब केवल खानापूर्ति तक ही सीमित रह जाता है। शिक्षा व्यवस्थाएं हर देश में परिवर्तन का प्रतिरोध करने के लिए जानी जाती हैं और भारत इसमें किसी से पीछे नहीं है। शिक्षा में सुधार और समयानुकूल परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रयास था 1964-66 में कोठारी आयोग का गठन और उसकी सिफारिशों पर 1968 की शिक्षा नीति का लागू होना। उस समय भी यह कहा गया था कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन तो परीक्षा पद्धति में ही करना होगा। छोटे-छोटे सुधार समय-समय पर किए गए। मगर इनमें से कोई भी मूलभूत परिवर्तन के रूप में नहीं उभरा। इस परीक्षा पद्धति के चलते निजी स्कूलों ने एक नई प्रतिस्पर्धा प्रारंभ की। बच्चों पर बस्ते का बोझ बढ़ता गया। राज्यसभा में प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण के एक मार्मिक भाषण के परिणामस्वरूप 1991-92 में इस पर एक समिति गठित की गई। उसके सुझावों का भी आज तक कोई दूरगामी परिणाम सामने नहीं आया। कुल मिलाकर यह साबित हो चुका है कि अब बच्चों पर दवाब पूरे साल भर बना रहता है। हर सप्ताह एक के बाद दूसरा ‘टेस्ट’।
भारतीय शिक्षा में अध्यापकों, अभिभावकों और समाज के दृष्टिकोण में एक मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। परीक्षाएं तब बोझ नहीं होंगी जब उनका उद्देश्य बच्चे की रुचि तथा उपलब्धियां जानने और उसके आधार पर आगे की दिशा निर्धारित करने में होगा, न कि उनकी नाकामयाबियों का लेखा-जोखा करने का। अंक आवश्यक हैं, मगर वे ही सब कुछ नहीं हैं। बच्चों पर परीक्षा से कहीं ज्यादा दवाब तो सही अध्यापन न होने से, अरुचिकर पाठ्यक्रम से और माता-पिता की ओर से डाले गए बोझ से पड़ता है। परीक्षा वाला दवाब इनमें सुधार होने पर स्वत: ही कम हो जाएगा। तब वह इतना ही रह जाएगा जितना आगे के जीवन में उन्हें हर पग पर सहना ही होगा।
[ लेखक जगमोहन सिंह राजपूत, एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]
  साभार– दैनिक जागरण।

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