मेरे दादा की औपचारिक स्कूली शिक्षा सातवीं कक्षा के बाद ही खत्म हो गई थी। मगर यह कमी उन्हें सारंगढ़ रियासत के काबिल वकील का सम्मान अर्जित करने से नहीं रोक पाई। स्वाध्याय से सफल वकील बने मेरे दादा इसी तरीके से भरतीय दर्शन के भी बड़े जानकार बने। जाहिर है कि, उनके लिए ऐसी किसी धारणा का कोई वजूद न था कि किस उम्र तक क्या कुछ सीखना चाहिए। जब मेरी उम्र नौ साल की थी, उन्होंने मुझे दर्शन की घुट्टी पिलानी शुरू कर दी। मगर मैं कुछ न समझ सका और इसमें पूरी गलती मेरी थी। मेरे दादा एक बात बराबर कहते थे कि हमारे देश के ज्यादातर पुजारी जिन मंत्रों का जाप करते हैं, उनके अर्थ नहीं समझते। अगर वे उनका मतलब जानते भी हैं, तो उनके जाप और अनुष्ठान उसकी सार्थकता नहीं स्थापित कर पाते। कभी-कभी वह कुछ पुजारियों को अपने सरल लगने वाले सवालों में उलझा देते थे। जैसे, यह मंत्र उस मंत्र के पहले क्यों आया या इन दो धार्मिक सिद्धान्तों में क्या संबंध है ? मैं इसी सीख के साथ बड़ा हुआ कि इतने सारे लोग जिसे पूज्य मानते हैं, वे कितने निरर्थक हैं।
कुछ दशक के बाद मैंन एक वैश्विक स्तर के इंजीनियरिंग में कारोबार में जिम्मेदारी संभाली। उस कारोबार में उत्पाद की गुणवत्ता सबसे महत्वपूर्ण जरूरत थी। हमारे ग्राहक, साझीदार और सप्लायर दुनिया भर में थे। जापान में इंजीनियरिंग व निर्माण कारोबार के साथ काम करने का वह अनुभव किसी ध्यान की अवस्था में डुबने से कम न था। छोटी प्रक्रिया, सरल पद्धति, मजबूत अनुशासन, फोकस के साथ-साथ सबसे संबद्धता और बिना किसी हड़बड़ी के वक्त की अहमियत समझने वाली वह दुनिया बेहद शांत और व्यवस्थित थी। उस दुनिया ने लगातार सबसे ज्यादा गुणवत्तायुक्त उत्पादों को जन्म दिया है।
भारत की मैन्युफैक्चरिंग की दुनिया के लिए जो चीज जरूरी है, वह जापान में नहीं थी। यहां की किसी भी फैक्ट्ररी या मैन्युफैक्चरिंग कारोबार का महत्व उसके सिस्टम और प्रभावशाली प्रमाणपत्रो पर निर्भर होता है। आईएसओ, क्यूएस, सिक्स सिग्मा इनमें से कुछ खास सर्टिफिकेट हैं। लेकिन इन प्रमाणपत्रों वाले कारखानों के उत्पादों में मुझे गुणवत्ता या तो नदारद मिली या फिर वह भयभीत के श्रम का नतीजा थी। जापानियों के पास ऐसे प्रमाणपत्र नहीं थे, मगर उनके पास गुणवत्ता थी। भारतीय मैन्युफैक्चरों के पास मैंने तमाम सर्टिफिकेट देखे, मगर उनके उत्पादों में गुणवत्ता नहीं दिखी। यकीकन, उनमे कुछ अपवाद मिले। मगर कुछ ही। हम में से ज्यादातर भारतीय इस सच्चाई को स्वीकार करना नहीं चाहेंगे, पर अगर हमें आगे बढ़ना है, बदलना है, तो इसे स्वीकार करना पड़ेगा।
यह हमारे पुजारियों की दुनिया से मिलती-जुलती दुनिया है। तमाम प्रमाणपत्र और नियमावलियां मंत्रों के समान हैं, और सिस्टम परम-पूज्य, लेकिन पूरी तरह निरर्थक। जिन्हें विशेषज्ञों ने लिखा है, जो बहुत थोड़े लोगों की समझ में आता है, और उनमें भी कम लोग उसका इस्तेमाल करते हैं। वास्तविकता से उसका कोई संबंध नहीं है या मामूली सा संबंध। वह सिर्फ प्रभावित करने के लिए है, न कि जीने के लिए। जैसे पुजारियों का गुणी समूह निरर्थक परंपराओं की अगुवाई करता है और उनके अज्ञानी अनुयायी सिर्फ मंत्र दोहराते जाते हैं।
लगता है कि निरर्थक परंपराएं आधुनिक भारत की आम संस्कृति बन चुकी हैं। हमारी स्कूली शिक्षा इनसे सभी स्तरों पर प्रभावित है। कुछ उदाहरणों पर गौर कीजिए। बच्चों को पहाड़े रटाना कैसे भारतीय स्कूलों की फिल्मी छवि का पर्याय बन चुका है। बच्चे उन्हें लयात्मक रूप से दोहराते हैं, बगैर यह समझे कि गुणा का मलतब क्या है या हमारी जिन्दगी से उसका क्या रिश्ता है ? शिक्षक इस समझ को विकसित करने की कोशिश नहीं करते, बस उनका मकसद मंत्रों की तरह उन्हें बच्चों को रटा देना भर है। परीक्षाएं तो महज इस निरर्थकता को मजबूत करती हैं। स्कूलों की दैनिक सभा (डेली असेंबली) दरअसल विद्यार्थियों में सामाजिक विकास की मजबूत प्रक्रिया है, जो सिर्फ प्रार्थना करने व एक छात्र के अखबार पढ़ देने की रस्म-अदायगी बनकर रह गई है। हमारी संस्कृति को निरर्थकता की व्याधि से मुक्ति दिलाने की एकमात्र सामाजिक प्रक्रिया अच्छी शिक्षा है। यही वह औजार है, जिसके सहारे हम इसे अर्थवान बना सकते हैं।
लेखक-अनुराग बेहर(सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन)
साभार-दैनिक जागरण
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