जनता की भाषा में जनता को न्याय मिले, न्याय पाने की प्रक्रिया में जरूरी बहस-मुबाहिसे जनता की ही भाषा में होनी चाहिए। सच्चे जनतंत्र की यह बुनियादी शर्त होनी चाहिए। लेकिन लगता है कि आए दिन सरकारों को न्याय और जनतंत्र का पाठ पढ़ाने वाली न्यायपालिका खुद जनतंत्र का बुनियादी पाठ भूल गई है। ताजा मामला राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से जुड़ा है, जिसने अपनी कार्यवाही के दौरान हिन्दी पर प्रतिबंध लगाते हुए, यह बात साफ कर दी कि जो वादी उसके समकक्ष व्यक्तिगत रूप से पेश होते हैं, वे अपने दस्तावेज केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत कर सकते हैं। जस्टिस यू डी साल्वे की अध्यक्षता वाली एनजीटी की पीठ ने ओजस्वी पार्टी की एक अपील पर यह व्यवस्था दी है, जिसे हिन्दी में दायर किए जाने के चलते पहले अस्वीकार कर दिया गया था। जनतांत्रिक समाजों में कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए गए हैं। पहला स्रोत है विधायिका, दूसरा स्रोत है परंपराएं और तीसरा अदालतों के फैसले। इन अर्थो में देखें, तो अदालतों पर समाज, समुदाय और वक्ती संदर्भों के मुताबिक फैसले देने का भी अधिकार है।
बेशक एनजीटी 2011 की नियमावली अंग्रेजी में सुनावाई का आधार देती है। अगर ऐसा है, भी तो अंग्रेजी की अनिवार्यता का विरोध ही किया जाना चाहिए, क्योंकि यह जनतंत्र की न्यायिक प्रक्रिया के बुनियादी सिद्धान्त के खिलाफ है। वैसे एनजीटी इस फैसले का मूल संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड एक भाग-ख में भी ढूंढा जा सकता है। जिसमें कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायलय और उच्च न्यायालयों की कामकाज की भाषा सिर्फ अंग्रेजी होगी। पता नहीं, यह समझ में नहीं आता कि जिन संविधान निर्माताओं ने 14 सिंतबर 1949 को हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा के तौर पर स्वीकार किया, उन्होंने ही संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड एक के भाग-ख में उस विदेशी भाषा को उच्च न्यायापालिका के लिए जरूरी क्यों मान लिया, जिसके खिलाफ उन्होंने बड़ी लड़ाई लड़ी थी। हो सकता है कि तब इंसान की मूर्तियों में भारतीय भाषाओं और हिन्दी के ज्ञान की कमी संविधान निर्माताओं की मजबूरी की वजह रही हो। लेकिन वक्त के साथ इसमें बदलाव आ जाना चाहिए था।
वैसे तो केन्द्रीय गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय चाहे, तो राज्यों की मांग पर इस व्यवस्था में बदलाव किया जा सकता है। इसी के तहत राजस्थान हाईकोर्ट, जोधपुर पहला उच्च न्यायालय बना, जहां कामकाज की भाषा के लिए अंग्रेजी के अलावा हिन्दी को भी मान्यता दी गई। उसे हिन्दी में कामकाज की अनुमति 14 फरवरी 1950 को मिली थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट और बिहार के पटना हाईकोर्ट में भी हिन्दी में कामकाज के लिए अनुमति मांगी गई थी। जिन्हें क्रमशः 1970 और 1972 में अनुमति मिली थी। पर इसके बाद जैसे इस पर रोक ही लग गई। 2010 में तमिलनाडु ने तमिल मे, 2012 में छत्तीसगढ़ ने हिन्दी में और 2012 में गुजरात ने गुजराती में काम करने की अनुमति मांगी। लेकिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय और कनून मंत्रालय ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इसी से पता चलता है कि भाषायी स्वाभिमान को लेकर केन्द्र सरकार की क्या सोच रही है। अब चूंकि एक ऐसा नेता के हाथ में केन्द्र की कमान है, जो अपना पूरा संवाद हिन्दी में ही करता है, एक ऐसे शख्स के हाथ गृह मंत्रालय का दायित्व है, जो हिन्दी में ही पूरा कामकाज करता है, इसलिए बदलाव की उम्मीद की जानी चाहिए।
लेखक-उमेश चतुर्वेदी
साभार-अमर उजाला
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