पूंजीपतियों के नौकर तैयार करने तक सिमटी शिक्षा


शिक्षा का उद्देश्य है परिवार, समाज, और देश के लिए अच्छे नागरिक तैयार करना। शिक्षा गुणवत्तापरक होगी तो राष्ट्र की बेहतर मानव संपदा तैयार करने में मदद मिलेगी, जो किसी भी परिस्थिति से जुझने और स्वालंबन का पर्याय होनी चाहिए। लेकिन हकीकत में एकदम उलट हो रहा है। शिक्षा का उद्देश्य पूंजीपतियों के लिए नौकर तैयार करने तक सिमट कर रह गया है। सरकार से लेकर आम अभिभावक का ध्यान सिर्फ इस पर है कि उनका बच्चा बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों मंे जाकर अच्छी कमाई करे। आज गुणवत्ता उसे माना जा रहा है कि बच्चा कितने बढ़िया पब्लिक स्कूल में पढ रहा है, ट्यूशन पर कितना खर्च कर रहा है। इससे केन्द्र में पूरी तरह पैसा आ गया है। शिक्षा के भीतर ऐसी प्रवृत्तियों की घुसपैठ विनाशकारी है। इसने शिक्षा के मूल उद्देश्य से ध्यान भटका दिया है। शिक्षा व्यक्ति, समाज या राष्ट्र निर्माण से जुड़ने के बजाय स्टेटस सिंबल बनकर रह गई है। इस व्यवस्था और मौजूदा नजरिए से सरकारी शिक्षा मेल नहीं खाती। चिंताजनक है कि शिक्षा, वह भी सरकारी विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा को लेकर राजनेता और नौकरशाह गंभीर नहीं हैं। शिक्षा को लेकर रीति-नीति और मंशा एकदम साफ होनी चाहिए। ऐसा हुआ तो कई समस्याओं का समाधान खुद-ब खुद हो जाएगा। सबसे पहली जरूरत शिक्षा में समानता की है। साथ में शिक्षा के व्यापारीकरण को खुली छुट नहीं मिल सकेगी। इसके बाद सरकारी शिक्षा का भी सही तरीके से मूल्यांकन संभव होगा। सरकारी शिक्षा पर हर वक्त संसाधनविहीन और ढुलमुल रवैया का तमगा नहीं रहना चाहिए। कुछ दशक पहले तक सरकारी विद्यालयों की संख्या भले ही आज की तुलना में काफी कम रही हो, लेकिन शिक्षा के लिहाज से उन्हे बड़ा सम्मान प्राप्त था। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक विद्यालय संसाधन सीमित होने के बावजूद अच्छे चलते थे। वजह शिक्षा का सबसे अच्छा संसाधन शिक्षक और प्रधानाचार्य है। जिन विद्यालयों में शिक्षक और प्रधानाचार्य अच्छे है, उनकी तस्वीर ही अलग है। लेकिन अब अच्छे शिक्षकों और प्रधानाचार्यो को प्रोत्साहन नहीं मिलता। उन्हें काम करने की आजादी नहीं है। इसका बड़ा असर गुणवत्ता पर पड़ रहा है। शिक्षण की गुणवत्ता में शिक्षण विधा और शिक्षा व्यवस्था दोनों की अहमियत है। पहले शिक्षा व्यवस्था और शिक्षण विधा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। संसाधन उसी तरह से जुटते चले जाएंगे। अच्छे शिक्षकों और प्राचार्यो की कमी नहीं है, लेकिन लेकिन उन्हें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। जापान और चीन जैसे देशों ने पैसे के बल पर नहीं, मानस के बल पर उन्नति की है। शिक्षा का उद्देशय एकमात्र नौकरी नहीं, बल्कि स्वावलंबन होना चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि सरकारें और नौकरशाह जिस शिक्षा व्यवस्था को पोषित कर रहें हैं, वह पूंजी केन्द्रीत है। शिक्षा को चिंतन के बजाए पैसा का विषय बनाने से घोलमेल हो रहा है। लगता है कि देर-सबेर सरकारी विद्यालयों को ही खत्म करने की साजिश की जा रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उस पर सभी राजनेता और नौकरशाह अमल करें तो सरकारी शिक्षा की दशा तो सुधरेगी ही, गुणवत्ता में भी आशातीत सुधार दिखाई देगा।

 लेखक-एनएनपी पांडेय (पूर्व शिक्षा निदेशक)
साभार-दैनिक जागरण

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