प्रदेश सरकार विद्यालयों के उच्चीकरण को लेकर गंभीर दिख रही है। राजकीय जूनियर हाईस्कूलों और हाईस्कूलों के उच्चीकरण होने से निश्चित रूप से स्थानीय आबादी को फायदा होगा और विद्यार्थियों को माध्यमिक शिक्षा के लिए खासतौर पर पर्वतीय क्षेत्रों में लंबी दूरी तय नहीं करनी पड़ेगी। हांलाकि, यह कदम उठाने से पहले यह जरूर देखा जाना चाहिए कि विद्यालयों का उच्चीकरण राज्य की स्कूल मैपिंग योजना के मुताबिक हो। यानि क्षेत्र की जरूरत को ध्यान में रखकर ही उच्चीकृत करते हुए नए विद्यालयों की स्थापना की जाए। लेकिन हकीकत इससे कम ही मेल खा रही है। चुनाव के मौके पर शिक्षा महकमे की ये कार्यवाही आबादी की संख्या और जरूरत को ध्यान में रखकर की जा रही हो, यह संदेह के दायरे में है। दरअसल, शिक्षा महकमा खुद विद्यालयों के उच्चीकरण के बोझ के तले दबा हुआ है। ऐसे उच्चीकृत विद्यालयों की तादाद काफी ज्यादा है, जिनके पास, भूमि, भवन, फर्नीचर, लाइब्रेरी, लेबोरेट्री जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं ऐसे में साल-दर-साल विद्यालयों की बढ़ती तादाद गुणवत्तापरक शिक्षा तो दूर की बात, कामचलाऊ और शिक्षा में भी आड़े आ रही है। पिछले दो-तीन वर्षो में ही बड़ी संख्या में विद्यालयों को उच्चीकृत, प्रांतीयकृत और अनुदान सूची में शामिल किया गया है। अब हालात ये है कि सरकार के पास अपनी इस कार्यवाही को मुकम्मल साबित करने के लिए धन तक नहीं है। इसके बावजूद विधायकों को खुश करने के लिए विद्यालयों के उच्चीकरण का औचित्य समझ से परे है। चुनाव के मौके पर सियासी नफा-नुकसान को तवज्जों देते हुए किए जाने वाले ऐसे फैसले कम से कम प्रदेश में शिक्षा की सेहत के हित में नहीं माने जा सकते। बेहतर यही होगा कि जूनियर हाईस्कूलों को हाईस्कूलों के रूप में उच्चीकृत किए जाने से पहले अनसुलझे मसलों को गंभीरता से सुलझाया जाए। उच्चीकृत हाईस्कूलों और पहले से संचालित जूनियर हाईस्कूलों का अब तक एकीकरण नहीं किया जा सका है। एक ही परिसर में होने के बावजूद अलग-अलग चलने वाले इन विद्यालयों के छात्रसंख्या बेहद कम है तो अलग-अलग प्रशासनिक व्यवस्था शैक्षिक माहौल को पनपने ही नहीं दे रही है। हालात ये है कि एकीकरण के तमाम प्रयास अंजाम तक नहीं पहुंच पाए। आखिरकार सरकार को शिक्षक संगठनों के आगे घुटने टेकते हुए 1097 विद्यालयों के विलय के फैसले को वापस लेना पड़ा। जूनियर हाईस्कूलों के उच्चीकरण से जूनियर हाईस्कूल शिक्षों के कम होते पदोन्नति के अवसर और एलटी सलटी संवर्ग में समायोजन की दिक्कतों का समाधान भी अब तक ढूंढ़ा नहीं जा सका है। प्रदेश ऐसी शिक्षा नीति के लिए तरसने को मजबूर है, जिसके केन्द्र में विद्यार्थी हो। नीति नियंता और सियायतदां प्रदेश के भावी कर्णधारों के भविष्य से जुड़ी शिक्षा को लेकर इसी तरह बेपरवाह बने रहे तो गुणवत्ता सदैव यक्ष प्रश्न से रहेगी।
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