शंकर अय्यर
आंकड़े अक्सर शब्दों की तुलना में वस्तुस्थिति को सही ढंग से चित्रित करते हैं। हमारे देश में 7,966 स्कूल ऐसे हैं, जिनमें एक भी शिक्षक नहीं है। 1,05,530 स्कूलों में मात्र एक शिक्षक हैं। शिक्षकों के 7.7 लाख पद रिक्त हैं। 56,529 स्कूलों में पेयजल की सुविधा उपलब्ध नहीं है। पांच हजार से ज्यादा स्कूलों में मात्र एक क्लास रूम है। दस में से चार स्कूलों में बिजली नहीं है। प्राइमरी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले 44 फीसदी बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। भारत ओलंपिक में पदकों की अपेक्षा करता है, लेकिन दस में से चार स्कूलों में खेल का मैदान ही नहीं है! और जो देश सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल तैयार करने के लिए जाना जाता है, वहां के 25 फीसदी स्कूलों में कंप्यूटर नहीं हैं।
व्यवस्थागत सुस्ती के प्रभाव को असर (एएसईआर) की रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है। असर, 2014 की रिपोर्ट हमें बताती है कि पांचवीं कक्षा के दस में से पांच से ज्यादा बच्चे दूसरी कक्षा का सामान्य पाठ नहीं पढ़ सकते। पांचवीं कक्षा के 26 फीसदी से कुछ ही ज्यादा छात्र भाग का सवाल हल कर सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों के दूसरी कक्षा के 24 फीसदी बच्चे वर्णमाला या अक्षर नहीं पढ़ सकते।
आम तौर पर हिंदी भाषी राज्यों का प्रदर्शन ज्यादातर मानकों पर बहुत बुरा है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में ऐसे बहुत से स्कूल हैं, जहां कोई शिक्षक नहीं है। एक मात्र शिक्षक वाले एक लाख से ज्यादा स्कूलों में से 63 हजार से ज्यादा स्कूल मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं बिहार में हैं। 7.7 लाख शिक्षकों के रिक्त पदों में से चार लाख से ज्यादा केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में हैं। सरकारी अनुमान के मुताबिक, स्कूल जाने की उम्र के करीब 81 लाख छात्र स्कूल से बाहर हैं और उनमें से ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से हैं।
असर की रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा के चार में से मात्र एक छात्र दूसरी कक्षा के पाठ पढ़ पाते हैं और मात्र 11 फीसदी छात्र भाग का सवाल हल कर पाते हैं। पर अपनी तमाम चुनौतियों के बावजूद हिमाचल प्रदेश विभिन्न मानकों पर खरा उतरता है। यह हैरानी की बात है कि अन्य हिंदीभाषी राज्य इस पहाड़ी राज्य के अनुभव से क्यों नहीं सीखते।
ऐसा नहीं है कि देश में शिक्षा पर धन खर्च नहीं किया गया है। वर्ष 2004 से 2014 के बीच केंद्र एवं राज्य सरकारों का शिक्षा पर आवंटन चार गुना बढ़कर 84,111 करोड़ रुपये से 3,95,000 करोड़ रुपये हो गया। मगर इसके परिणामों पर कभी बात नहीं होती।
विरोधाभास यह है कि सरकार जैसे-जैसे शिक्षा पर खर्च बढ़ाती जा रही है, माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। वर्ष 2005 में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 16 फीसदी थी, जो 2015 में 30 फीसदी हो गई और अनुमान है कि 2020 तक यह आंकड़ा 50 फीसदी को छू लेगा। अनुमानित तौर पर 70 लाख से ज्यादा बच्चे निजी ट्यूशन ले रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। निजी स्कूलों में छात्रों का दाखिला 30 फीसदी से बढ़कर 51 फीसदी हो गया है। यही स्थिति हरियाणा (54ः) एवं राजस्थान (42ः) की भी है। सरकारी आंकड़ों से ही पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के 1.6 लाख सरकारी स्कूलों की तुलना में वहां के 78 हजार निजी स्कूलों में ज्यादा छात्र हैं।
यह सड़ांध जवाबदेही और स्वायत्तता के अभाव का नतीजा है। चूंकि शिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया है, इसलिए भी व्यवस्थागत समस्याएं बढ़ रही हैं। प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने सलाह दी थी कि राज्य सूची में आने वाले विषय क्षेत्रों में केंद्र को अगुआ, मार्गदर्शक, सूचनाओं का प्रसारक और समग्र योजना का निर्माण और मूल्यांकन करना चाहिए। पर ऐसा नहीं हुआ।
ध्यान शिक्षा के नतीजों पर केंद्रित होना चाहिए था। लेकिन इसके बजाय ध्यान भवन निर्माण और बजट पर केंद्रित किया गया। राज्यों और स्कूलों को स्वायत्तता देने की जरूरत के बारे में बार-बार बातें हुई हैं। देश की कई बीमारियों के एकमात्र इलाज के रूप में वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून पारित किया गया। यह न केवल भ्रमित उद्देश्यों के घेरे में है, बल्कि वित्तपोषण को लेकर केंद्र-राज्य की राजनीति का भी शिकार है। आरटीई में निर्धारित दस मानकों का पालन मात्र 8.3 फीसदी सरकारी स्कूल ही करते हैं।
पिछले एक दशक की विफलता बताती है कि चलता है, की मानसिकता से निकलना होगा। समिति और आयोग के गठन के लिए अब समय नहीं है। पहला कदम संरचनात्मक दोष तय करने का उठाना चाहिए। केंद्र को राज्यों को शिक्षा के नतीजों का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए नीति तैयार करने की स्वायत्तता देनी चाहिए। राज्यों को भी स्थानीय प्रशासन को स्वायत्तता देने के साथ उन्हें वित्तपोषित करना चाहिए।
स्कूलों, शिक्षकों और सरकारों को प्रौद्योगिकी को अपनाना चाहिए। इससे शिक्षकों की अनुपस्थिति में कमी आएगी। ऑडियो, वीडियो और स्थानीय स्तर पर प्रौद्योगिकी की देखभाल करने वाले को तैनात कर रिकॉर्डेड क्लास के माध्यम से पुरस्कार विजेता शिक्षकों से छात्रों को परिचित क्यों नहीं कराया जाता? कौशल प्रशिक्षण को प्रारंभिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देना कैसा रहेगा? बेहतर शिक्षा के लिए स्कूलों और शिक्षकों को प्रोत्साहित करना कैसा रहेगा? एक दर्जन राज्यों में भाजपा की सरकार है-नवोन्मेष का अनुकरणीय मॉडल तैयार करने के बारे में क्या विचार है?
शिक्षा की मौजूदा हालत देखकर पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन हैरान हो गए होते। तथ्य यह है कि देश में शिक्षा भारी संकट में है। राधाकृष्णन को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब व्यवस्थागत जाल से शिक्षा को बाहर निकालकर नई सोच विकसित की जाए।
-वरिष्ठ पत्रकार और एक्सीडेंटल इंडिया के लेखक साभार- अमर उजाला
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