आरक्षण ऐसे दीजिए कि किसी के साथ अन्याय न हो

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायलय के उस आदेश पर रोक लगा दी है, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के बिना ही राज्य में स्थानीय निकायों का कार्यकाल जनवरी के अंत तक समाप्त होने वाला है, इसलिए चुनाव अधिसूचना जारी की गई थी। मगर उसकी इलाहाबाद उच्च न्यायलय में इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि अन्य पिछड़े वर्ग का आरक्षण निर्धारित करते समय सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिपादित ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले का पालन नहीं किया गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने जवाब में यह कहा था कि आरक्षण निर्धारित करते समय ट्रिपल टेस्ट जैसे फॉमूले का ही पालन किया गया था, किंतु राज्य सरकार के जवाब से हाईकोर्ट संतुष्ट नहीं था।
संविधान के अनुच्छेद 243 -टी में स्थानीय निकायों में विभिन्न वर्गो के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था है। राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि सीटों का आरक्षण करते समय वे तार्किक और न्यायपूर्ण सिद्धांतों का पालन करें । इसमें एक समस्या है। राष्ट्रीय स्तर पर होनेे वाली जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों की गणना नहीं की जाती। इस संबंध में राज्य सरकारों पर अक्सर यह आरोप लगता है कि वे अपनी सुविधा से पिछड़े वर्ग की जनसंख्या का निर्धारण करती ह,ै जिसके लिए आमतौर पर रैपिड सर्वे कराया जाता है। यह काम केवल चुनाव के समय होता है, और पारदर्शिता के अभाव के कारण इस पर सदैव सवाल उठते रहे हैं। कृष्णा राव गवली बनाम महाराष्ट्र 2010 के मामले में इस व्यवस्था को चुनौती दी गई। अदालत के सामने तर्क रखा गया था कि यह व्यवस्था भेदभावपूर्ण है। सभी पक्षों की सुनवाई करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला का नाम दिया गया। अदालत ने व्यवस्था दी कि अन्य पिछड़े वर्गो के लिए सीटों का निर्धारण इसी फॉमूले के आधार पर किया जाएगा। यह सिद्धांत तीन चरणों में काम करता है। पहले चरण में राज्य द्वारा पिछड़ा आयोग की स्थापना की जाती है, जो स्थानीय निकायों का व्यापक सर्वेक्षण करके अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के आर्थिक व राजनीतिक स्तर के बारे में व्यापक सर्वेक्षण करता है और तय करता है कि वहां पर पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण जरूरी है या नहीं, और यदि है, तो कितनी? दूसरे चरण में पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछडां वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाती है। तीसो चरण में, राल्य सरकार यह सुनिश्चित करती है कि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजनति और पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या कुल आरक्षण की सीमा से अधिक नहीं हो। हालांकि राजनीति के सूत्र अदालती निर्णयों की तरह सीधे नहीे होते। उसमें बहुत जटिलताएं होती हैं। राजनीतिक स्वार्थ उसमें कई किंतु-परंतु जोड़ते रहते है और अपने दलगत हितों की पूर्ति के लिए टेढे़ं-तिरछे रास्ते ढ़ूढ़ते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल टेस्ट का सिद्धांत इसलिए तय किया था कि चुनाव में सभी वर्गो की उचित नुमाईदगी हो। मगर हम ऐसा नहीं कर सके। हमने इसका उपयोग अपवाद के रूप में ही किया । उत्तर प्रदेश को ही देखें तो यहां सरकार चाहे जिस दल की रही तथाकथित रैपिड सर्वे के आधार पर ही सभी ने आरक्षण किया। 2012 व 2017 के स्थानीय निकाय के चुनाव भी इसी आधार पर हुए थे। इस दौरान हुए त्रिस्तरीय पंचायत के चुनावों में भी सुप्रीम कोर्ट के दिशा- निर्देशों का पालन नहीं हुआ। हालांकि यही स्थ्तिि अन्य राज्यों की भी है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और झारखण्ड के मामले तो शीर्ष अदालत तक पहुंच चुकें है, अदालत इस पर गंभीर चिंता जता चुकी हैं। अदालत इस पर गंभीर चिंता जता चुकी है, पर हम कोई सीख नहीं ले सके हैं। पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव राजनीतिक व्यवस्था की नर्सरी होते हैं। भविष्य के राजनेता वहीं से लोकतंत्र का शुरूआती पीछे पढ़ते हैं, इसलिए इन निकायों को ऐसा स्वरूप देने की जरूरत है कि किसी वर्ग में अन्याय-बोध नहीं पनप सके। लिहाजा जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय रास्ते पर ईमानदारी से चला जाए।
ये लेखक के अपने विचार है


लेखक-हरबंश दीक्षित
साभार-हिन्दुस्तान


 

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