कोचिंग की गलाकाट होड़ में असहाय न हो जाएं किशोर

हाल ही में कोटा के कोचिंग इंस्टीटयूट में पढ़ने वाले तीन किशोर उम्र के छात्रों द्वारा की गई आत्महत्या ने हमें झकझोर दिया है। जरा सोचिए बिहार और मध्य प्रदेश के मूल निवसी इन छात्रों के माता-पिताओं ने उन्हें कोटा में दाखिल दिलाने के लिए कैसे धन जुटाया होगा? उन्होने अपने बेटों के भविष्य के बारे में न जाने कितने खूबसूरत सपने देखे होंगे? प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारी सरकारें, समाज, शिक्षक और अभिभावक इन हादसों से कोई सबक ले पाएंगे? हमारे देश में पढ़ाई के दबाव में युवा विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की प्रवृति नई बात नहीं है, पर पिछले दशक में इसमें बेतहाशा वृद्धि देखी गई है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था की यह एक बड़ी विफलता नहीं है कि किशोर और युवा उम्र के विद्यार्थी परीक्षा में नाकामयाबी के भय से अपने जीवन को खत्म करने पर मजबूर हो जाते हैं? कोटा और देश के अन्य स्थानों पर युवा विद्यार्थियों में बढ़ रही आत्महत्या की घटनाएं हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य, विशेष तौर पर अवसाद से पैदा होने वाले खतरों के प्रति एक गहरी उदासीनता प्रदर्शित करती हैं। युवाओं की अ्र्र्र्र्रन्य शारीरिक बीमारियां परिजनों मित्रों और शिक्षकों को कुछ संकेत ज्र्ररूर देती हैं किंतु मानसिक रोगों के संकेतों को समझ जाने की चेतना हम शायद अभी तक विकसित नहीं कर पाए हैं। मानसिक स्वास्थ्य का संकट भारत में ही नहीं, पूरे संसार में तेजी से दावानल की तरह फैल रहा है। कोविड के दौर में यह और व्यापक व सघन हुआ है। समाजशास्त्री, मनोचिकित्सा और विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बाबत चेतावनी देते रहे हैं।
हमारे देश में कोटा शहर संगठित कोचिंग उद्योग का सबसे बड़ा केंदª है। यह देश में कोचिंग उद्योग का सबसे बड़ा केंदª कैसे बना, इसकी भी दिलचस्प कहानी है। 1991 के बाद के उदारीकरण के दौर में भारत के निर्माण उद्योगों का धीरे-धीरे पराभव होने से कोटा के उद्योग-धंधे रूग्णता का शिकार होते गए। वैसे यहां पर कोचिंग उद्योग की शुरूआत 1985 के आसपास हुई, जब जे के सिंथेटिक्स कंपनी में 1971 से कार्यरत इंजीनियर वी के बंसल ने बंसल क्लासेज के अंतर्गत आईआईटी की प्रवेश परीक्षा हेतु कोचिंग देना शुरू किया । पिछले दस साल मे ंतो कोटा कोचिंग उद्योग के बाहुबलियों के लिए कॉरपोरेट जंग का अखाड़ा बन गया है। यहां हर साल दो से तीन लाख विद्यार्थी प्रतियोगी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं। यहां किशोर और युवा विद्यार्थियों की बढ़ती आमद, छात्रावास में रहने के बुरे हालात और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के माहौल में हजारों विद्यार्थियों का मोहभंग अवसाद और फिर आत्महत्या की प्रवृति का अच्छा चित्रण ओटीटी पर जारी कोटा फैक्ट्री 2021 में किया गया था। 16-17 वर्ष के बच्चों का होस्टलों में रहना, कोचिंग में अति प्रतिस्पर्धा माहौल में पढ़ना दोनों स्थानों पर खेलकूद व मनोरंजन की सुविधाओं की कमी और मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं के निदान हेतु डॉक्टरों व काउंसलर का अभाव यहां आम है। चौतरफा दबाव के माहौल में जी रहे इन बच्चों की ओर अगर अभिभावक, दोस्त, शिक्षक और कोचिंग संस्थान अपना हाथ न बढ़ाए, तो उन्हें कैसे मजबूती मिलेगी? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि विद्यार्थियों में आत्महत्या के मामले निछले दो वर्षो 2020-2022 में तेजी से बढ़े हैं। साल 2020 में 12526 विद्यार्थियों ने खुदखुशी की, जिनकी संख्या 2021 में 13089 हो गई। इसका मुख्य कारण परीक्षा का डर बताया गया था।
वर्ष 2017-18 में राज्य सरकार ने जांच के लिए उच्चस्तरीय समिमि नियुक्त की थी, पर धरातल पर कुछ नहीं दिखा। क्या स्वयं अभिभावक, शिक्षक या कोचिंग सेंटर बचाव के लिउ ठोस पहल कर रहे हैं? विद्याार्थिायों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति समाज, संस्कृति, शिक्षा व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की मूल विफलताओं से जुड़ी है। हम जब तक सफलताओं के साथ विफलताओं को भी सहजता से लेने वाला समाज नहीं बनाएंगे, तब तक समाधान नहीं निकलेगा। करोड़ो का मुनाफा कमाने वाली कोचिंग कंपनियों को अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। क्या नई शिक्षा नीति में इस आपदा से हमारी युवा पीढ़ी को बचाने की कोई योजना है?
                                                              (ये लेखक के अपने विचार है)


लेखक-हरिवंश चतुर्वेदी डायरेक्टर बिभटेक
साभार-हिन्दुस्तान

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