आप अच्छे अभ्यास कभी बंद मत कीजिए। जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे अभ्यास से बढ़ाइए। देखिए, आपके विश्वास की स्थिति क्या है। विश्वास के अभाव में भी लोगों का जीवन बिगड़ रहा है। शास्त्रीय लोगों, जाति, परिवार, परलोक में विश्वास नहीं है। श्रद्धावान जरूर होना चाहिए, लेकिन श्रद्धावान ऐसा नहीं कि अंध भक्त हो जाएं। आस्तिक बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं।
यह भी होता है कि लोग पुरानी चीजों, प्राचीन ज्ञान से दूर भागने लगते हैं। मुहं से खाने की परंपरा या तरीका पुराना है, तो क्या नाक से खाने लगेंगे? सड़क पर ही चलना है या सड़क पर नहीं चलकर कहीं और चलने लगेंगे? व्यवहार दुरूस्त करने की आवश्यकता है। तमाम लोग ऐसे हैं, जो बहुत बड़ी-बड़ी बात बोलते हैं, किंतु उनका व्यवहार शून्य होता है।
हम सबने छोटी आयु में एक कहानी पढ़ी थी, आज भी यह कहानी पढ़ाई जाती है। किसी तोते को उसके पालक ने सिखाया था कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, उसमें मत फंसना। तोते को कंठस्थ हो गया। एक बार शिकारी आया, जाल बिछाया और दाना डाला पास ही बैठ गया कि देखें कौन फंसता है तो वही तोता आया। तोते ने मालिक के शब्दों को केवल रट लिया था किंतु उसे यह नहीं पता था कि शिकारी कौन होगा, दाना क्या होगा, कैसे आएगा, कैसे जाल बिछाएगा, फंसने का क्या अर्थ है, कैसे हम फंसने से बचेंगे आदि। ठीक इसी तरह से तमाम अच्छी बात करने वाले लोग हैं, किंतु पहले बतलाया जा चुका है कि ज्ञान को परिपक्व बनाना पड़ता है। ज्ञान जब परिपक्व होता है, तभी लाभ देता है। ऐसे ही तमाम लोग हैं, जो रामायण या भागवत पर बोल रहे हैं, लोकतंत्र पर बोल रहे हैं, तमाम विधाओं पर बोल रहे हैं, स्वच्छता पर बोल रहे हैं, कुरीतियों को दूर करने पर बोल रहे हैं, लेकिन ये वास्तव में तोते जैसा बोल रहे हैं। तोता भी बोलता था, किंतु जाल में फंस गया। शिकारी ने फंसा लिया, तो सबसे जरूरी है कि हम अपने ज्ञान को परिपक्व बनाएं तब हमारा व्यवहार शुद्ध होगा। हमारे यहां कहा जाता है कि अधकचरा ज्ञान विष के समान होता है। ज्ञान पचना चाहिए, चरित्र में उतरना चाहिए। दुनिया में जितने दुराचारी हुए उन्हें भी पता था कि झूठ नहीं बोलना है, चोरी नहीं करना है, गलत आहार नहीं लेना है, लांछित नहीं होना है, छल- कपट नहीं करना है, किंतु वे खुद को बचा नहीं सके।
भूलना नहीं चाहिए, अपनी संस्कृति ज्ञान की परिपक्व अवस्था की बात करती है। संस्कृति के आधारभूत मूल्य कभी नही बदलेंगे, जैसे सूर्य और चन्द्रमा नहीं बदलेंगे। जीवन को पूर्णता देने वाले सच्चे मूल्यों से जुड़कर ही जीवन सार्थक बनाना चाहिए।
साभार-हिन्दुस्तान
लेखक- रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य
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