
एक बार एक गुरू मध्य भारत में अपने एक शिष्य के साथ कहीं की यात्रा कर रहे थे। एक जगह पर कुछ अशिष्ट, असभ्य बच्चे शिष्य के ऊपर पत्थर फेंकने लगे। वे उसे चिढ़ा रहे थे और गालियां भी दिए जा रहे थे। बच्चे गुरू-शिष्य के पीछे-पीछे चलते रहे। आखिरकार वे सब एक नदी के तट पर पहंुचे। नदी पार करने के लिए गुरू और शिष्य एक नाव में बैठे तो बच्चे भी दूसरी नाव में बैठ गए, पर बीच नदी में पहुचते ही उनकी नाव डूबने लगी।
गुरू ने अपने शिष्य के गाल पर एक तमाचा लगाया। शिष्य चकित रह गया, क्योंकि उन शरारती बच्चों के प्रतिउत्तर में उसने एक शब्द भी नहीं कहा था। इतना अच्छा शिष्य होने पर भी गुरू ने उसे चांटा मारा। गुरू ने कहा यह सब तुम्हारा दोष है। उनकी नाव डूबने के लिए तुम जिम्मेदार हो। तुमने उनकी गालियों का कोई उत्तर नहीं दिया। प्रकृति ने अब उन्हें इतना कठोर दण्ड दिया है, क्योंकि तुमने इतनी दया नहीं की कि तुम उनके बुरे शबदों को रोको।
गुरू के जमाचे ने इस घटना के बुरे कर्मो से बच्चों के भावी जीवन को प्रभावित होने से बचा लिया। साथ ही बच्चों की नाव को डूबते देखकर शिष्य के मन में उभरती प्रसन्नता को भी दूर कर दिया। इस प्रकार, शिष्य को भी इस घटना के बुरे कर्म से बचा लिया। याद रखिए ज्ञानी का का्रेध भी आशीर्वाद होता है।
सद्गुरू सबका ध्यान रखते हैं। दरअसल मंदिर के निर्माण में एक शिल्पकार सभी प्रकार के पत्थरों का उपयोग करता है, ये पत्थर दुनिया को कभी दिखाई नहीं देते। कुछ दूसरे पत्थरों से जिन्हें तराशा जा सकता है, इसी प्रकार गुरू के पास भी बहुत सारे लोग,बहुत सारे शिष्य आते हैं। जिस मात्रा तक वे गुरू के प्रति समर्पित होते हैं, उसी के अनुसार वे गुरू के प्रति समर्पित होते है, उसी के अनुसार वे गुरू द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। मगर सभी आवश्यक हैं। यदि सीढ़िया ही न हो, तो कोई मंदिर तक कैसे पहंुचेगा? यदि नींव न हो, तो मंदिर वहॉ होगा कैसे? इसी तरह, खंभो के बिना गुंबज कहां? इसलिए एक बात हमेशा याद रखें कि जैसे मंदिर के शिल्पकार के लिए प्रत्येक पत्थर उत्कृष्ट एवं अनमोल होता है, वैसे ही गुरू के लिए हरेक शिष्य प्रिय होता है।
साभार - हिन्दुस्तान
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