शिक्षा के सार्वभौमिकरण को लेकर सरकार की नीति और नियत सवालों के घेरे में हैं। प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक सरकारी विद्यालयों की संख्या मे साल-दर-साल इजाफा हो रहा है, लेकिन छात्रसंख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। राज्य गठन के बाद वर्ष 2001 में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में छात्र संख्या 2016 तक आते-आते आश्चर्यजनक ढ़ंग से तेजी से घट गई है। प्राथमिक स्तर पर तो यह संख्या तकरीबन 50 फीसद तक घट गई है, उच्च प्राथमिक स्तर पर 67 हजार से ज्यादा बच्चे कम हो गए हैं। ये हाल तब है, जब 16 साल की अवधि में 1433 प्राथमिक, 499 उच्च प्राथमिक और 2000 से अधिक सरकारी व सहायता प्राप्त विद्यालय खोले गए हैं 2000 से अधिक प्राथमिक विद्यालय ऐसे है, जिनमें माध्यमिक स्तर पर सरकारी और सरकारी सहायता से संचालित विद्यालयों में छात्रसंख्या में कमी तो नहीं आई, लेकिन विद्यालयों की तादात के मुकाबले छात्रसंख्या का आंकड़ा उत्साहजनक नहीं माना जा सकता। वहीं अंग्रजी माध्यम और निजी क्षेत्र के विद्यालयों में लगातार छात्रसंख्या में वृद्धि दर्ज की जा रही है। ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या सरकारी शिक्षा या विद्यालय जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहें? आम अभिभावक जिस अच्छी और गुणवत्तापरक शिक्षा के साथ ही मौजूदा समय प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने वाली शिक्षा की अपेक्षा सरकारी विद्यालयों से कर रहा है, वह पूरी हो रही है या नहीं।
इन सवालों के बीच जब सरकारी विद्यालयों की हकीकत से रूबरू होते हैं तो हालात चैंकाने के लिए काफी हैं। चार हजार से अधिक प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में बिजली नहीं है। सात हजार से अधिक विद्यालयों में हाथ धोने के लिए जल की व्यवस्था नहीं है। 200 माध्यमिक विद्यालय पेयजल तो 277 विद्यालय बिजली से वंचित हैं। 7 हजार से ज्यादा प्राथमिक-उच्च प्राथमिक विद्यालयों मे खेल के मैदान नहीं है। 95 फीसद प्राथमिक और 43 फीसद उच्च प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों ने कम्प्यूटर नहीं देखा। माध्यमिक शिक्षा की बदहाली देखिए, तकरीबन 48 फीसद विद्यालयों में विज्ञान प्रयोगशालाएं नहीं है तो हुनर निखारने के लिए कला एंव हस्तशिल्प कक्ष 83 फीसद विद्यालयों में नहीं हैं। 55 फीसद विद्यालयों में खेल मैदान नहीं हैं। कक्षाकक्ष की कमी से 14 फीसद से अधिक विद्यालय जूझ रहे हैं। बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएं नहीं है। दूरदराज के विद्यालयों में तो शिक्षक भी जाने को तैयार नहीं है।
सरकारी विद्यालयों की कभी खत्म न होने वाली बदहाली और उनमें गुणवत्तापरक शिक्षा की चुनौती आम अभिभावकों में मायूसी भर रही है। हलांकि, 16 साल के वक्फे में शिक्षा के बजट में नौ गुना से ज्याद बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2001 में राज्य में शिक्षा पर होने वाली खर्च महज 6.745 अरब था, जो 2016 में 61 अरब यानी छह हजार करोड़ सालाना में पहंुच चुका है। भारी-भरकम बजट के बावजूद संसाधनयुक्त विद्यालय और गुणवत्तापरक शिक्षा का लक्ष्य कब तक हासिल होगा, इसका जवाब सत्ता प्रतिष्ठान के पास तो नहीं है। सियासी नफा-नुकसान और विद्यालय भवनों के निर्माण के ठेके को ध्यान में रखकर नए विद्यालयों को खोलने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की जरूरत है। स्कूल मैपिंग को हाशिए पर रखकर सियासदां और नौकरशाह विद्यालयों के स्थान तो तय कर रहें हैं, लेकिन शिक्षा की सही दशा और दिशा देने की मूल जिम्मेदारी शायद उपदेशों तक सीमित होकर रह गई
आखिर छोटे राज्यों में शिक्षा को बेहतर स्वरूप देने को ठोस और कारगर फैसलों पर तत्कालीन लाभ और तुष्टीकरण को कहां तक उचित ठहराई जा सकती है। पहली नियुक्ति और पदोन्नति पर भी शिक्षक दूरदराज में जाने को भी तैयार नहीं हैं। तबादलों को लेकर वर्षवार रोस्टर आधारित प्रणाली जब कमोबेश समान भौगोलिक विषमता वाले पड़ोसी राज्य हिमाचल में कारगर है तो उत्तराखंड में उसे मूर्त रूप देने में हिचकिचाहट क्यों है? सरकारी शिक्षा में बेरोजगारों को खपाने वाले हजारों रोजगार हैं। शिक्षा अधिकारियों की लम्बी-चैड़ी फौज है, वेतन-भत्ते पर जाया करने के लिए बड़ा बजट भी है, लेकिन विद्या के मंदिरों की प्राणवायु विद्यार्थियों को केन्द्र में रखकर शिक्षा की नीति तय करने का इंतजार कभी खत्म होगा भी या नही।
लेखक-रविन्द्र बड़थ्वाल
साभार-दैनिक जागरण
Comments (0)