दिल्ली की आप सरकार ने ‘दिल्ली बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन’ की स्थापना का एलान किया है, जिसके पाठ्यक्रम अगले सत्र से स्कूलों में पढ़ाए जाएंगे। भारत में, जहां गजब की विविधता है, वहां यह सोचना ही बेमानी है कि कोई केंद्रीय शिक्षा बोर्ड देश के अलग-अलग इलाकों में पढ़ने वाले बच्चों के हालात और जरूरतों को समझ पाएगा। यह देश, छात्र और शिक्षा, तीनों के हित में नहीं है। मगर केंद्रीकरण के नाम पर यही सब कुछ अंधाधुंध हो रहा है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ताजा फैसला अपने स्कूलों के बेहतर प्रदर्शन को देखकर किया है, जो काफी हद तक सही भी है। बेशक कुछ बुनियादी अवधारणाओं की समीक्षा करना बेहद जरूरी है, लेकिन उम्मीद है, इसके लिए जल्द ही सटीक कदम उठाए जाएंगे। नए बोर्ड का पाठ्यक्रम ऐसा जरूर होना चाहिए, जिसमें आसपास के राज्यों से आने वाले बच्चों का भी ख्याल रखा जाए। इसके अलावा, दिल्ली में बड़ी संख्या में बहुजनों के बच्चे रहते हैं, जिनके हिसाब से मानदंड तय किया जाना मुख्य चुनौती रहेगी।
आज देश के लगभग सभी राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों के अपने-अपने शिक्षा बोर्ड हैं। कौंसिल ऑफ बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन के मुताबिक, सीबीएसई, आईसीएसई सहित देश भर में 67 शिक्षा बोर्ड को मान्यता मिली हुई है। मगर विडंबना है कि सिर्फ केंद्रीय शिक्षा बोर्ड की चर्चा देश के शिक्षा विमर्श पर हावी है। इसके पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कई राज्य बोर्ड औसत किस्म का काम करते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का खासतौर से जिक्र होता है। लेकिन बिहार में खस्ता शिक्षा व्यवस्था की वजह से वहां का स्कूल तंत्र बदहाल है, जो निष्कर्ष बिहार सरकार द्वारा 2006 में गठित समान स्कूल व्यवस्था आयोग ने भी निकाला था। कुछ बिहार जैसी बदहाली उत्तर प्रदेश की भी है। अगर यह मान भी लिया जाए कि किसी राज्य बोर्ड के पाठ्यक्रम में कमजोरी है, तो इसका उपाय यह नहीं कि केंद्रीय शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम को आंख मंूदकर थोप दिया जाए, बल्कि उस बोर्ड के कर्ता-धर्ताओं को यह ताकीद कराई जाए कि वे अपने कामकाज में सुधार लाएं। वैसे भी, सीबीएसई से देश के महज पांच-छह फीसदी बच्चे पढ़ाई करते है, शेष राज्य बोर्ड के ही विद्यार्थी हैं।
1970 और 1980 के दशकों में मध्य प्रदेश के शिक्षा विभाग की एक मशहूर पुस्तक थी, तीसरी का भूगोल। यह तीसरी कक्षा के विद्यार्थियों की किताब थी। इसकी खासियत यह थी कि इसमें जिला-स्तर की पर्याप्त भौगोलिक जानकारी होती थी। यह बच्चों को रास सी आती थी, भूगोल उनके लिए बोझ न बनकर मजेदार हो जाता था। इस किताब को पढ़कर कोई भी जिले के बारे में सटीक ज्ञान हासिल कर सकता था। ऐसा इसलिए संभव था, क्योंकि इसे स्थानीय शिक्षाविदों व शिक्षकों ने तैयार किया था। बच्चों के लिए विविधतापूर्ण माहौल कितना जरूरी है, तमिलनाडु इसका बड़ा उदाहरण है। इस राज्य ने हमेशा केंद्रीय बोर्ड को नकारा है। इसका परिणाम यह निकला कि राज्य बोर्ड से पास होने वाले 10वीं ओर 12वीं के बच्चे बाद में उम्दा डाॅक्टर व इंजीनियर बने। केरल की स्कूल व्यवस्था तो आजादी के पहले और बाद में हमेशा ही अन्य राज्यों के मुकाबले बेहतर रही है और उसका बोर्ड भी। देखा जाए, तो यह सामाजिक न्याय की लड़ाई से जुड़ा मसला है। जहां-जहां यह लड़ाई सफलतापूर्वक लड़ी गई, वहां की बुनियादी व्यवस्था अन्य जगहों से बेहतर साबित हुई है। मसलन, तमिलनाडु ने 1955-56 में समान स्कूल व्यवस्था के उन प्रावधानों को अपने यहां लागूु कर दिया था, जिनकी सिफारिश 1966 में कोठारी आयोग ने की है।
साफ है, हमें संविधान के मुताबिक संघीय रचना पर आधारित विकेंद्रीकरण की और बढ़ना चाहिए। 25 नवंबर, 1949 को संविधान पेश करते हुए डाॅ बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने कहा भी था, ‘हमने देश की सत्ता का बंटवारा इस तरह कर दिया है कि कोई भी केंद्र में बैठकर पूरे देश को नियंत्रित नहीं कर सकता, बशर्ते वह संविधान का पालन करे’। बेहतर होगा कि संविधान की इस बुनियादी सिद्धांत की इज्जत करते हुए हम शिक्षा को लेकर भी वही रवैया अपनाएं। तभी समलामूलक, न्यायशील, भेदभाव से मुक्त और लोकतांत्रिक भारत की संकल्पना साकार हो सकती है। (ये लेखक के अपने विचार है)
लेखक- अनिल सद्गोपाल (पूर्व डीन, शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय)
साभार- हिन्दुस्तान
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