स्वाधीनता आंदोलन से उपजा उच्च शिक्षा का एक दीप स्तंभ

आज से नौ साल पहले बसंत पंचमी के अवसर पर काशी विद्यापीठ (अब महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) की स्थापना हुई थी। शिक्षा के व्यवसायीकरण के वर्तमान दौर में भी महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित कशाी विद्यापीठ की अपनी अलग पहचान और प्रासंगिकता सचमुच प्रेरक है। इसकी स्थापना का मूल प्रयोजन और उद्देश्य ‘बापू’ की शिक्षा संबंधी अवधारणा ‘मनुष्य का संपूर्ण विकास’ और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा को मूर्तरूप देना था।


1916 में स्थापित काशी हिन्दु विवि की स्थापना में भूमि और धनसंग्रह सेलेकर हर कदम पर महामना मालवीय के अनन्य सहयोगी रहे काशी के दानशील रईस बापू शिवप्रसाद गुप्त ने विवि के लिए अंग्रेज सरकार की मदद और अनुदान स्वीकार किए जाने पर अपनी सहमति नहीं प्रदान की थी। ‘स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा’ के गांधी के स्वप्न को साकार करने के लिए शिवप्रसाद गुप्त ने राष्ट्र केंद्रीत तीन प्रकल्पों को व्यावहारिक मूर्तरूप प्रदान किया- राष्ट्रीय शिक्षा के केंद्र-काशी विद्यापीठ की स्थापना, राष्ट्रीय चेतना के प्रसारके लिए भारतमाता मंदिर की स्थापना और दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन। काशी विद्यापीठ की स्वाधीनता संग्राम की नर्सरी के रूप में ख्याति ऐतिहासिक उपलब्धि थीं।



गांधीजी ने 1920 में असहयोग आंदोलन में सरकारी, अर्द्धसरकारी विद्यालयों के बहिष्कार का आवाह्न किया था। आंदोलन उग्र होने के परिणामस्वरूप काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई। शुरू में शिवप्रसाद गुप्त ने अपने भाई की स्मृति में हरप्रसाद शिक्षा निधि की स्थापना कर विद्यापीठ के लिए संपूर्ण व्यय का दायित्व संभाला था। काशी में 9 फरवरी, 1921 को टाउन हाॅल की सार्वजनिक सभा में गांधी जी ने सीधा आवाह्न किया था, ‘सरकारी विद्यालयों का त्याग ही एकमात्र कर्तव्य है। जब तक हमारे दुःखों का प्रतिकार न किया जाए, तब तक सरकारी विद्यालय हराम हैं।’ अगले दिन बसंत पंचमी को काशी विद्यापीठ का आरंभोत्सव हुआ।



काशी विद्यापीठ के मूल संकल्प ऐसी शिक्षा देना था, जो भारतवर्ष की अवस्था और आवश्यकताओं के अनुकूल व उपयोगी हो। काशी विद्यापीठ के मूल उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में स्पष्ट होते हैं। महात्मा गांधी ने 1929 में विद्यापीठ के दीक्षांत समारोह में कहा था, ‘स्नातकों को यह जो कागज का पुर्जा प्रमाण-पत्र दिया गया है, वह कोई बड़ी चीज नहीं है। आप स्नातकगण उसका संग्रह तो करें, परंतु ऐसा हरगित न सोचें कि उससे आजीविका का प्रबंध कर लेेंगे या धन पैदा करेंगे। आजीविका का प्रबंध करना इन विद्यापिठों का ध्येय नहीं है। इससे आजीविका भी प्राप्त हो जाती है, परन्तु आप लोगे समझ लें, आप राष्ट्र को अपना जीवन समर्पित करने के लिए आते हैं।’ गांधी जी का यह संदेश शिक्षा जगत के लिए एक सार्वकालिक महत्व का संदेश है। यहां दीक्षांत भाषण करने वाले विख्यात मनीषियों की लंबी सूची में राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, जयप्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, काका कालेलकर आदि प्रमुख रहे। इनके दीक्षांत भाषण अमूल्य वैचारिक धरोहर हैं।



स्थापना के अगले 50-52 सालों में काशी विद्यापीठ की ख्याति पूरे विश्व में पहुंची, पर साधनों के अभाव से जूझती इस संख्या को 1973 में उत्तर प्रदेश सरकार का अधिनियम विवि घोषित किया गया। आज पिछड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही तथा चंदोली जिलों के संबद्ध करीब साढ़े तीन सौ काॅलेजों, के दूरदराज ग्रामीण क्षेत्रों के तीन लाख से अधिक छात्र-छात्राओं के लिए काशी विवि शिक्षा-सशक्तिकरण व शैक्षणिक आकांक्षाओं की पूर्ति का महत्वपूर्ण केंद्र है।



वर्तमान सदी में ‘वंचितों तक पहुंच’ का जो संकल्प और चुनौतियां नवीन शिक्षा नीति-2020 के संदर्भ में आज देश के समक्ष हैं, उनमें विद्यापीठ ऐसा दीप स्तंभ या लाइट हाउस है, जो बाजार बनती शिक्षा के समुद्र में भटकते जहाज को सही गंतत्व तक पहुंचाने में सहायक है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने विद्यापीठ के संदर्भ में उचित ही कहा, रहे काल पर दृष्टि हमारी पृथ्वी की प्राचीन पुरी में, नित्य नया निज विद्यापीठ। कुलगीत में भी विद्यापीठ के प्राचीन-नवीन स्वरूप का संदर्भ ऐसे है विद्या के सिद्वपीठ जय महान है। जय-जय हे चिर नवीन, चिर पुराण हे।                   (ये लेखक के अपने विचार हैं)


लेखक- राममोहन पाठक, कुलपति, नेहरू भारती नामित विवि, प्रयागराज
साभार- हिन्दुस्तान

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