इधर कुछ वरिष्ठ अध्यापकों के सेवानिवृत्त होने पर उनके कुछ छात्रों द्वारा उनसे मिली शिक्षा, समझ आदि का जो गुणगान फेसबुक पर देखा, तो लगा कि भले ही हमारे यहां गुरु-शिष्य परंपरा कितनी ही शिथिल क्यों न हो गई हो, पूरी तरह से गायब नहीं हुई है। फेसबुक जैसा माध्यम सुलभ होने के कारण यह संभव हो पा रहा है कि हम इन अध्यापकों के अवदान का उनके छात्रों द्वारा आकलन, उनका कृतज्ञता-ज्ञापन आदि जान पाते हैं। कई बार हमें ऐसे अध्यापकों का भी पता चलता है, जो कहीं दूरदराज के इलाके में किसी अप्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान में सक्रिय रहे और जिनकी शिक्षा को उनके छात्र कृतज्ञतापूर्वक आलोकन मानते समझते हैं। चूंकि इधर शिक्षा को उपकरणात्मक करने व मानने की जहनियत व्यापक हुई है, इस संबंध का दूसरा पक्ष भी है। छात्र सार्वजनिक रूप से शिक्षकों की चापलूसी, भक्ति आदि करके उन्हें मिल सकने वाली नौकरी में ऐसे शिक्षकों की कृपादृष्टि बनाए रखना चाहतें हैं। अक्सर ऐसे शिक्षक भी अपने छात्रों का इस संदर्भ में विशेष ध्यान रखते हैं।
पिछले कई दशकों से भाषायी विभागों में नियुक्तियों का एक आधार वैचारिक वफादारी रही है। इसके कारण कई बार सुपात्रों की अवहेलना हुई और अज्ञात कुलशील नौकरी पा गए। यह स्थिति अब नित विदृूत गढ़ रही है।
सत्याग्रह में अशोक वाजपेयी
साभार- हिन्दुस्तान
Comments (0)