उत्तराखंड में सरकारी शिक्षा की दुर्दशा पर हाईकोर्ट ने चिंता जताई है। अदालत ने सरकार को स्थितियां सुधारने के लिए तीन माह का वक्त दिया है। अब यह सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं कि नब्बे दिन की अवधि में समूचे सिस्टम को पटरी पर ले आए। ऐसा नहीं है कि वास्तविक हालात से तंत्र अवगत नहीं है, लेकिन सच्चाई यह है कि सुधार की दृढ़़ इच्छाशक्ति का आभाव इसमें हमेशा बाधा बना है। इससे बड़ा विरोधाभास और क्या होगा कि राज्य गठन के 16 साल में शिक्षा पर खर्च तो बढ़ता चला गया और गुणवत्ता लगातार गिरती गई। आंकड़ों पर नजर दौड़ाए तो वर्ष 2001 में शिक्षा पर होने वाला खर्च 6.74 अरब रूपये था जो अब 61 अरब तक पहंुच चुका है। इसके विपरीत प्राथमिक स्तर पर बच्चों की संख्या में पचास फीसद तक कमी आ गई है। इतना ही नहीं उच्च प्राथमिक स्तर पर भी बच्चों की संख्या 67 हजार कम हो चुकी है। इसकी ठोस वजह भी है। सरकारी स्कूलों के परिणाम से निराश अभिभावक अपने नैनिहालों के लिए निजी स्कूलों का रूख कर रहें हैं। पिछले दिनों पुरोला का एक स्कूल सुर्खियों में रहा, कारण यह है कि नौंवी कक्षा में अंग्रजी का पहला पाठ स्कूल खुलने के छह माह बाद भी पूरा नहीं हो पाया था। वर्ष 2014 में आई एनुअल स्टेट आॅफ एजुकेशन रिपोर्ट के आंकड़े वस्तुस्थिति को समझने के लिए काफी हैं रिपोर्ट बताती है कि कक्षा आठ तक के करीब 42 फीसद बच्चे शब्द तक ठीक से नहीं पढ़ पाते। गणितीय आंकलन से पता चला कि छठीं, सातवीं, और आठवीं के बच्चे सामान्य जोड़-घटा और गुणा-भाग तक करने में सक्षम नहीं हैं। सरकार ने भले ही प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर गांव-गांव में सरकारी स्कूलों के भवन तो खड़े कर दिए, लेकिन शिक्षकों की तैनाती मे इतनी उदार नजर नहीं आती। पहाड़ी इलाकों के कई विद्यालय एकल शिक्षक भरोसे चल रहें हैं। सुविधाओं के मामले में भी स्थिति दयनीय है। तीस फीसद स्कलों में शौचालय तक नहीं हैं और 56 फीसद में लड़कियों के लिए अलग शौचालय तक नहीं बनाए जा सके। 32 फीसद में खेल के मैदान तक नहीं है तो 30 फीसद में पीने के पानी की व्यवस्था तक नहीं की गई है। जंगली जानवरों के आतंक से जूझ रहे पर्वतीय क्षेत्र के स्कूलों में सुरक्षा की दृष्टि से चहारदीवारी अति आवश्यक है। हैरत यह है कि इस मामले में स्थिति सोचनीय है। करीब 54 फीसद विद्यालय चहारदीवारी से वंचित हैं। इन सबके बीच पुस्कालय के बारे में सोचना ही बेकार है। हालात यह है कि महज 37 फीसद स्कूल इस सुविधा से लैस हैं। इन परिस्थितियों को देखने के बाद हाईकोर्ट के आदेश की अहमियत समझी जा सकती है। निश्चित ही सरकार को चुनौतियों से निपटने के लिए कठोर फैसले लेने होंगे। सरकार शिक्षा पर आमजन का भरोसा बहाल करना हंस-खेल नहीं है।
साभार-दैनिक जागरण
Comments (0)