बैग का बोझ

स्कूल भले ही बंद हो, लेकिन स्कूली बच्चों को भारी बस्ते से मुक्ति दिलाने के लिए चल रहे प्रयास न केवल सुखद, बल्कि स्वागत के योग्य भी हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी नई स्कूल बैग नीति 2020 के अनुसार, बच्चों का स्कूल बैग उनके अपने वजन का दस प्रतिशत ही होना चाहिए। इसके अलावा कक्षा दो तक के बच्चों को कोई होमवर्क न देने का निर्देश भी जारी कर दिया है। दरअसल, वर्षों से बच्चों को स्कूली बैग के बोझ से मुक्ति दिलाने की चर्चा ल रही थी। यदा-कदा भलमनसाहत में स्कूल बैग को हल्का करने की सल्हा भी दी जाती रही, लेकिन अब चूंकि बाकायदे नीति बनाकर इस अच्छी पहल को लागू करने की कोशिश हो रही है, तो इस पर खासतौर से स्कूलों को ध्यान देना चाहिए।


भारी य हल्के स्कूल बैग कहीं से भी इस बात के संकेत नहीं हैं कि बच्चा पढ़ाकू है या उसके स्कूल में अच्छी या खूब पढ़ाई होती है। विगत दशकों में कुछ दिखावापसंद स्कूलों में लगभग होड़-सी लग गई थी कि किस स्कूल का बैग कितना भारी हो सकता है। कोई शक नहीं, स्कूल में जितने पीरिएड नहीं होते, उनसे दो गुना किताबें, काॅपियों मंगाने को बहुत कम ही लोग गंभीरता से ले रहे थे। इक्का-दुक्का अभिभावक आपत्ति करते भी थे, तो स्कूल के शोर में उनकी आवाज दब जाती थी। देखा-देखी भेड़चाल स्वरूप स्कूलों के बैग बड़े और भारी होते चले गए। पीठ और कंधे पर टांगे या थककर बैग घसीटते बच्चे शहरों में तो आम हो गए। अब जब केंद्र सरकार ने तमाम राज्य सरकारों को परिपत्र जारी कर दिया है, तब राज्यों को अपने स्तर पर बच्चों के बैग को हल्का कराने की तैयारी कर लेनी चाहिए। कुछ जगह इसकी शुरुआत सरकार स्कूलों से भी करनी पड़ सकती है, लेकिन विशेष रूप से निजी स्कूलों को पाबंद करना पडेगा। उन्हें समझाना होगा कि वे अपनी समय सारिणी सुधारें, केवल उन्हीं किताबें, ओर काॅपियों को स्कूल मंगवाएं, जिनकी जरूरत है। इसके साथ ही, बच्चों के पाठ्यक्रम संख्या घटाने पर भी विचार करना चाहिए। कुछ स्कूल काफी सारी किताबें और काॅपियां खुद ही रख लेते हैं, तो यह भी एक अच्छा तरीका है, ताकि बच्चों को कम से कम बोझ के साथ स्कूल आना पड़े।


अनेक अध्ययनों ने हमें बताया है कि भारी बैग कूबड़ और रीढ़ संबंधी अन्य समस्याओं को पैदा कर रहे है। जब बच्चों के बढ़ने या लंबे होने की उम्र होती है, तब उन पर जरूरत से ज्यादा बोझ लादना खतरे से खाली नहीं हैर, एसोसिएटेड चैंबर्स आॅफ काॅमर्स ऐंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया गया था कि भारत में 68 प्रतिशत बच्चे हल्के पीठ दर्द से पीडित हो सकते हैं और यह दर्द न केवल हमेशा के लिए बना रह सकता है, बल्कि कूबड़ की समस्या भी पैदा कर सकता है। देश के मुख्य शहरों में 2500 से अधिक बच्चों और 1000 से अधिक माता-पिता के बीच किए गए अध्ययन में पाया गया कि सात से 13 साल के 88 प्रतिशत से अधिक बच्चे अपने शरीर के वनज का 45 प्रतिशत के अधिक अपनी पीठ पर लादने को मजबूर हैं। देश तो यही चाहेगा कि कोरोना के बाद स्कूल जब भी खुलें, बच्चों केा हल्के बैग के साथ तनकर स्कूल जाते देखा जाए।


साभार- हिन्दुस्तान

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