मातृभाषा का महत्व जानने का समय

नई शिक्षा नीति के विभिन्न सदस्यों पर व्यापक चर्चाएं हो रही हैं। इसका एक पक्ष यह है कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांशतः लोक तब विवश दिखाई पड़ता है, जब उसे रोजगार संबंधी आवश्यकताओं और जीवन व्यवहार के लिए किसी विदेशी भाषा को अपनी मातृभाषा के ऊपर वरीयता देनी पड़ती है। जब हम भारतीय संस्कृति और दर्शन के संदर्भ में शिक्षा पर दृष्टिपात करते हैं, तो यहां शिक्षा जीविकोपार्जन का साधन मात्र बनकर नहीं रह जाती। भारतीय परंपरा में शिक्षा वस्तुतः हमारे जीवन का समग्रता की ओर संकेत करती है, जिसमें धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों का समावेश है। मूल्यपरक जीवन के संदर्भ में मातृभाषा की महत्ता पर्याप्त रूप से स्पष्ट है। मातृभाषा सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि वह माध्यम है, जो अबोध बालक-बालिकाओं को उनके सांस्कृतिक विरासत से सिचित करती है, क्योंकि भाषा अपने साहित्य से प्रत्यक्षतः जुडी हुई होती है। प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है सीखना और अवधारणात्मक क्षमता को विकसित करना। मातृभाषा का ठोस आधार जिन बच्चों को प्राप्त होता है, उनकी अवधारणात्मक क्षमता और चिंतन की पद्धति अधिक पुष्ट ओर विकसित देखी जाती है। मातृभाषा में अध्ययन से बच्चे तेजी से सीखते हैं, क्योंकि सोच-विचार, चिंतन की स्वाभाविक प्रक्रिया मातृभाषा के द्वारा संभव हो पाती है।


नई शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा का एक ठोस हेतु यह भी बताया गया है कि अंग्रेजी देश की आबादी के मात्र 15-16 प्रतिशत लोगों द्वारा ही व्यवहार में आती है। ऐसे में मातृभाषा में शिक्षा अधिकांश नागरिकों की शिक्षा संबंधी हितों को ध्यान में रखने की दृष्टि से समुचित है। यह भी ध्यान रहे कि आज जितने भी देश विश्व में उन्नत हुए है वे अपनी मातृभाषा में पढ़कर ही हुए हैं। मातृभाषा राष्ट्र की संस्कृति, दर्शन, इतिहास और धर्म का वाहक तत्व होती है। इस प्राण तत्व से जब एक बालक-बालिका सिंचित होती है, तो उसमें राष्ट्र का गौरव, स्वाभिमान और आत्मसम्मान जैसी भावनाएं सहज विकसित हेाती है। यद्यपि अन्य भाषाओं के अध्ययन में नई शिक्षा नीति में कहीं कोई गतिरोध नहीं, किंतु यह बात भी बहुत स्पष्ट है कि भाषा के साथ जुड़ा हुआ साहित्य हमारे विचारों को प्रभावित करने की पर्याप्त क्षमता रखता है। विद्यार्थियों के विचार, उनकी मानसिकता और सोच बाल्यावस्था में ही बनते हैं। ऐसे में भारतीय मूल्यों के प्रति सजग दृष्टि भाषा के द्वारा ही विकसित की जा सकती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा हमें पाश्चात्य जीवन मूल्यों और सभ्यता की ओर ले जाती है, क्योंकि भाषा अपने साथ अपनी संस्कृति भी अपरिहार्यतः ले आती है। आधुनिकीकरण की भ्रमपूर्ण व्याख्या कई बार छिछले मन-मस्तिष्क को धुरीहीनता की स्थिति में लाती है, जिसका परिणाम यह होता है कि ग्राह्य को ग्रहण करने और त्याज्य को छोड़ पाने का विवेक नहीं आ पाता।


संसार के मानचित्र पर यदि हम दृष्टिपात करें, तो पाएंगे कि अमूमन ऐसे सभी देश जिनकी अपनी भाषाएं विकसित हो सकीं, वे वैश्विक मानचित्र पर पिछड़े हुए है। अफ्रीकी महाद्वीप में 40 से भी ज्यादा देशो में उनकी अपनी किसी स्वतंत्र भाषा का विकास नहीं हो सका है। हैरत नहीं कि अफ्रीकी देश विकास में बहुत पीछे है। वस्तुतः परतंत्रता एक प्रकार की मानसिकता होती है, जो हमारे अलग-अलग लक्षणों और क्रियाकलापों से अभिव्यक्त होती है। आखिर अंग्रेजी हमारे लिए विवशता की सीमा तक जाकर अपरिहार्य कब और क्यों हो गई? निज-संस्कृति के गौरव की प्रतिष्ठा करने में यदि कोई सर्वाधिक समुचित माध्यम हो सकता है। जापान, चीन और इजरायल जैसे देशों का मानक भी हमारे सामने है। यदि हम जापान में अनुसंधान के क्षेत्र की बात करें तो अलग-अलग भाषाओं के शोधपत्र जापानी भाषा में एक महीने से भी कम अंतराल में अनूदित करा कर वहां के विद्वानों को पढ़ने के लिए मुहैया करा दिए जाते है। इज्जरायल की भाषा हिब्रू एक ऐसी भाषा थी, जो संसार के मानचित्र से लुप्तप्राय हो रही थी। आज वह जीवित है, तो उसके प्रति इजरायल की प्रतिबद्धता के कारण। हिब्रू देश की राजधानी के पद पर ससम्मान प्रतिष्ठित है। इजरायल स्वयं में भाषाई एकता और मातृभाषा किसी भी राष्ट्र के नागरिक का मूल होती है। उससे विलग होना वस्तुतः स्वयं की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहा जाना है। बिल्कुल वैसे ही जैसे गमले में लगा बोनसाई वटवृक्ष अपनी वास्तविकता से अनभिज्ञ रह जाता है। जापान, जर्मनी, इटली, इजरायल, चीन, रूस आदि देशों की तेज प्रगति इस मिथ्या धारणा को ध्वस्त करती है कि विकास की भाषा अंग्रेजी है। यदि ऐसा होता, तो फिर ये देश भी विकास में भारत से पीछे होते।


शिक्षा के संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार भी यहां उल्लेखनीय हैं कि मातृभाषा से इतर छात्रों पर अंग्रेजी भाषा लादना वास्तवः में विद्यार्थी समाज के प्रति एक कपटपूर्ण वृत्ति है। राष्ट्रपिता ने इस बात को भी स्पष्ट रूप से कहा था कि विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के साथ उनकी स्वयं की मौलिकता को भी धीरे-धीरे समाप्त करता जाता है। निश्चित रूप से इसके पीछे उनके समूचे जीवन का अनुभव और उनकी गहरी सोच थी, जो इसी तथ्य की ओर संकेत करती है कि विचार एवं अवधारणा संबंधी क्षमता का कौशल मातृभाषा में एक बालक के अंदर जिस तरह पनपता है, वह कोई अन्य भाषा कभी नहीं कर सकती। (लेखिका काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)


लेखिका- डाॅ. श्रुति मिश्रा
साभार- जागरण

Comments (0)

Please Login to post a comment
SiteLock
https://www.google.com/url?sa=i&url=https%3A%2F%2Fwww.ritiriwaz.com%2Fpopular-c-v-raman-quotes%2F&psig=AOvVaw0NVq7xxqoDZuJ6MBdGGxs4&ust=1677670082591000&source=images&cd=vfe&ved=0CA8QjRxqFwoTCJj4pp2OuP0CFQAAAAAdAAAAABAE