शिक्षा नीतियों में सुधार की दरकार

कम होना ही चाहिए शिक्षा का बोझ शीर्षक से लिखे अपने लेख में जगमोहन सिंह राजपूत ने बच्चों पर पड़ने वाले किताबी बोझ और शिक्षा के राजनीतिकरण का उचित वर्णन किया है। हमारे देश में जिस तरह शिक्षा को सियासी रंग दिया जाता है वह बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हाल ही में अशोक गहलोत सरकार ने दसवीं के सामाजिक विज्ञान में महाराणा प्रताप से संबंधित उस पाठ में बदलाव किया जिसे वसुंधरा राजे सरकार ने अपने समय पर परिवर्तित किया था। इस तरह के कदम राजनीतिकरण पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखाई पड़ती हैं जो बच्चों के लिए भ्रामक स्थिति उत्पन्न करते है। शिक्षा ही प्रगति के द्वार खोलती है और सभी को समान शिक्षा मिलना उनका संवैधानिक अधिकार भी है, परंतु आज शिक्षा व्यापार का जरिया बन चुकी है। किताबों से लेकर फीस तक में सरकारी और निजी स्कूलों के बीच बहुत ज्यादा अंतर है। गुणवत्ता के नाम पर ज्याद फीस वसूलने वाले बच्चों पर अतिरिक्त किताबों और अधिक अंक अर्जित करने का बोझ डाल देते हैं। देश में समय-समय पर शिक्षा नीतियां बनती रही है, लेकिन सरकारी और निजी स्कूलों के बीच की खाई कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। बचपन से ही बच्चों पर माता-पिता की आकांक्षाओं को पूरा करने का दबाव रहता है, जिसके कारण बच्चे स्वावलंबी बनने के बजाय नौकरी के पीछे भागते रहते है। इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए भी शिक्षा नीतियां तैयार होनी चाहिए, ताकि बच्चे असफल होने के भय से मुक्त होकर व्यावहारिक ज्ञान की ओर बढ़ें देश के अंतिम शिक्षा नीति 1986 में लागू हुई थी। ऐसे में शिक्षा नीतियों का एक नियत समय पर अवलोकन होना चाहिए, ताकि वर्तमान परिस्थितियों को देखतु हुए प्रासंगिक बनी रहें। शिक्षा विभाग को राजनीति से परे रखना चाहिए और पाठ्यक्रम तैयार करते समय किसी दल की निजी विचारधारा को दरकिनार करते हुए बच्चों के सर्वांगीण विकास का ध्यान रखना चाहिए। देशभर में शिक्षा में समरूपता लाने का प्रयास होना चाहिए, जिसके लिए एक निर्धारित फीस के साथ एनसीईआरटी की किताबें चलाई जा सकती हैं। बच्चों में नैतिकता का विकास करके उन्हें प्रकृति प्रेमी बनाना चाहिए, और प्रत्येक बच्चे को एकसमान शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें देशहित में भागीदार बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए तभी सशक्त और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण संभव है।
शिवम सिंह, बिंदकी, फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
साभार जागरण

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