यह हिन्दी को बांटने की राह तो नही


हिन्दी के लिए जंगी जुनून भरे कार्यक्रम देखना अब किसी सपने सा लगता है। याद आता है साठ और सत्तर का दशक, जब सड़कों पर छात्रों के रैले ’अंग्रेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा’ या अंगे्रज यहां से चले गए, अंग्रेजी हमें हटानी है’ जैसे नारे लगाते हुए अंग्रेजी के साइन बोर्डों पर कालिख पोतते थे। आज तो सरकारी दफ्तरों में औपचारिकता मात्र बने श्रीहीन हिन्दी पखवाड़े या हिन्दी दिवस के सालाना कार्यक्रम दिखते हैं। ऐसे में, जब इटावा हिन्दी सेवा निधि का निमंत्रण मिला, तो मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। इटावा हिन्दी सेवा निधि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज प्रेम शंकर गुप्ता ने एक पुरूस्कार मे मिली राशि में कुछ अपनी तरफ से मिलाकर स्थापित की थी और इसके पीछे उद्देश्य उन हिन्दी सेवियों का सम्मान करना था, जिन्होंने हिन्दी की उन्नति में योगदान दिया है। न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्ता अपने बहुत सारे फैसले हिन्दी में सुनाने के लिए याद किए जाते हैं उनकी मृत्यु के उपरांत उनके बेटे और परिवार के अन्य सदस्य इस परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं और हर वर्ष इटावा में एक जीवंत आयोजन के रूप मे कार्यक्रम करते हैं, जो सरकारी दफ्तरों के औपचारिक आयोजनों की तरह बेस्वाद और ठंडा नहीं होता। इस वर्ष यह आयोजन 13 नवंबर को था और इसमें भाग लेना मेरे लिए किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं साबित हुआ।
    इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भोजपुरी को संविधान के अनुच्छेद आठ में शरीक करने का समर्थन करने वाला बयान दिखा। कुछ वर्ष पूर्व विश्व भोजपुरी सम्मेलन में भाग लेने माॅरिशस गया था। वहां अचानक मेरा माथा ठनका, हर वक्ता अपने भाषण की शुरूआत में हिन्दी को गाली और फिर भोजपुरी की प्रशंसा कर रहा था। क्या हिन्दी और भोजपुरी एक दूसरे की शत्रु है? मेरी समझ यह थी कि भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका जैसी बोलियां तो हिन्दी के लिए खाद का काम करती हैं। आखिर आज जिसे हम हिन्दी कहते हैं, वह भी तो सौ-सवा सौ साल पहले एक बोली थी। यही खड़ी बोली मानकीत होकर आज एक समृद्ध भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। बोलियों की साहित्यिक परंपरा और मिठास का इसनें अपने अंदर समावेश कर लिया है। हिन्दी का कोई शब्दकोश उठाकर देखें, तो उसमें ज्यदातर शब्द इन्हीं बोलियों के हैं। यह खड़ी बोली के अद्भुत समावेशी चरित्र के कारण ही संभव हो सका कि संस्कृत, अंगरेजी, फ्रेंच, पुर्तगाली, तुर्की, अरबी, फारसी और अपरोक्त बोलियों से अपनी भाषा संपदा समृद्ध करने वाली हिन्दी ने एक सदी में ही स्वंय को विश्व की उन्नत भाषाओं के बीच खड़ा कर लिया है। अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनने में उसे भोजपुरी जैसी भाषाओं का सहारा मिला है। अपनी बारी आने पर मैंने निवेदन किया कि बिना भोजपुरी हिन्दी अधुरी है। क्या आप हिन्दी साहित्य के किसी ऐसे पाठ्यक्रम की कल्पना कर सकते हैं, जिसमें सूर, तुलसी, कबीर या विद्यापति न पढ़ाए जाते हों?
    कुछ वर्ष पूर्व मैं हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और जर्मनी के एक विश्वविद्यालय के बीच एमओयू पर दस्तखत करने गया था और वहां मैंने विकिपीडिया खोलकर जर्मन शिक्षाविदों को दिखाया कि हिन्दी दुनिया की सबसे अधिक बोलने वाली भाषा है। आज यदि हम विकिपीडिया खोलकर देंखे, तो उसके किसी संस्करण में इसका चैथा स्थान और किसी में पांचवां हो जाता है। वैसे विकिपीडिया बहुत अधिक प्रमाणित नहीं है, क्योंकि उसमें कोई भी, कुछ भी जोड़-घटा सकता है, फिर भी किसी जानकारी का एक मोटा अनुमान विकिपीडिया से लगाया जा सकता है। मैंने हिन्दी की हैसियत में गिरावट के कारण जानने के लिए विकिपीडिया के अलग-अलग संस्करणों को खंगालना शुरू किया, तो पाया कि उनके हालिया संस्करणों में भोजपुरी, मैथिली, अवधी, हरियाणवी, मारवाड़ी, और मगही जैसी बोलियों को अलग भाषाओं के रूप में दर्ज किया गया है, और उनके बोलने वालों की संख्या को घटाकर हिन्दी बोलने वालों की संख्या आंकी गई है, इसलिए उसके स्थान में गिरावट आई है। यह पूरी कार्रवाही इसलिए भी शरारतपूर्ण लगती है कि इसका कोई तालमेल भारत की पिछली जनगणना से नहीं है। आमतौर से उपरोक्त बोलियों के स्त्रोत पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा या झारखंड के लोग अपनी मातृभाषा के काॅलम में हिन्दी ही लिखते हैं। फिर इन बालियों को मातृभाषा बताने वालों की काल्पनिक संख्या कहां से आई? ऐसा तो नहीं कि हिन्दी की हैसियत कमतर दिखाने के लिए जान-बूझकर प्रयास किए जा रहें हैं?
    भोजपुरी अपने आप में काफी समृद्ध है, लेकिन लिपि, व्याकरण या मानकीकरण की अनुपस्थिति भोजपुरी को बोली से भाषा नहीं बनने देती। जो भोजपुरी संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल होगी, वह कौन सी भोजपुरी होगी? एक लोक कहावत के अनुसार, हर दो कोस पर भाषा बदल जाती है। बनारस जौनपुर सीमा पर जो भोजपुरी बोली जाती है, वह बनारस गाजीपुर सीमा पर जाते-जाते भिन्न हो जाती है। लगभग वहीं स्थिति है कि जिस छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव विधानसभा में पास किया गया, उसमें 94 बोलियां हैं, जिसमें सरगुजिया और हालवी जैसी समृद्ध बोलियां भी हैं। इसी तरह, राजस्थान को आठवीं अनुसूचि में शामिल करने की मांग करने वाले नहीं बताते है कि वे ब्रज, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवात, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी में से किसे राजस्थानी मानते हैं?
    हिन्दी में विभाजक प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ने वाले प्रोफेसर अमरनाथ का कहना है कि हिन्दी अकेली नहीं है, जिसमें बोलियां समाहित हैं। गुजराती (सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी आदि), असमिया (क्षखा, मयांग आदि), उड़िया (संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि), बांग्ला (बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरपुरिया आदि) और मराठी (गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुडाली आदि) में भी तो तमाम बोलियां हैं, पर इनमें तो कहीं भी अलगाव के स्वर नहीं सुनाई देते। उन्हें शक है कि जान-बुझकर हिन्दी को कमजोर करने के लिए बोलियों की अस्मिता के स्वर उठाए जा रहें हैं। षड्यंत्र न भी हो, तब भी यह बोलियों की अस्मिताओं का भावुक और स्वार्थी इस्तेमाल जरूर है। कभी भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी की साहित्य आकादमी में भोजपुरी प्रवेश की कोशिश एक भोजपुरी भाषी विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने असफल कर दी थी, क्योंकि वह इस प्रयास के माध्यम से हिन्दी को विभाजित करने के षड्यंत्र को बखुबी समझ गए थे।
लेखक-विभूति नारायण राय
साभार-दैनिक हिन्दी हिन्दुस्तान

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