यदि हमारा समाज स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की पहल यानी लोकल के लिए वोकल के महत्व को समझ सके तो वह केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं, अनके सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान करने में सहायक हो सकेगा। देश में वैश्वीकरण की जिस चमक-दमक से आकर्षित होकर विदेषी ब्रांड के प्रति ललक तथा संग्रहण की प्रवृत्ति बढ़ी है। वह केवल शहरों तक सीमित नहीं रहीं। इस प्रवृत्ति के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तन आवश्यक है। इसके लिए हमें मुख्य रूप से अध्यापकों और स्कूलों पर निर्भर होना होगा। आज कोई भी बड़ा और अस्थाई परिवर्तन शिक्षा व्यवस्था में मूलभूत बदलाव के बिना संभव नहीं। इसके लिए दूरदृष्टि औश्र हर क्षेत्र के लोगों की मानसिकता की समझ भी आवश्यक होगी। रोजगार देना प्राथमिकता है, मगर केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। आत्मनिर्भर भारत के लिए ऐसी शिक्षा हर बच्चे को देनी होगी जो उसे परिवार, गांव और समाज से जोड़े सके। उसे वे आधुनिक कौशल भी देने होंगे जो वैज्ञानिक खोजों के परिणामस्वरूप हर जगह उपलब्ध है और जिनको सकरात्मक उपयोग हर क्षेत्र में अपेक्षित परिवर्तन ला सकता है।
जो राज्य इस समय परंपरागत कौशल और रोजगार के अवसर बढ़ाने पर विचार कर रहे है उन्हें इस प्राथमिकता को गतिशील बनाएं रखना होगा। सकारात्मक उपलब्धियों के उदाहरण लोगों के सामने उनका मनोबल बढ़ाने के लिए प्रस्तुत करने होंगे। जो दिशानिर्देश राज्य सरकारें रोजगार क अवसर उपलब्ध कराने के संबंध में दे रही है उनमें मजदूरों को स्कूलों मे काम देने की बात भी कही गई है। इसक व्यय पंचायतों को उपलब्ध कोष से आना है। यूपी सरकार ने कुछ समय पहले कायाकल्प कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूलों में संसाधन सुधार की पहल की थी। यदि यह सफल हो पाती तो एक अद्भुत उदाहरण बन सकती थी। ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि यहां भी पंचायतों के काष पर ही भार आना था। अपेक्षा के प्रतिकूल पंचायतों की प्राथमिकता सूची में सरकारी स्कूल बहुत नीचे आते है। पंचायती राज एक्ट के बाद पंचायतों में राजनीति पूरी तरह प्रविष्टि हो चुकी है। उन्हें नए सिरे से प्रेरित करना होगा, मगर वैकल्पिक व्यवस्था पर भी विचार करना होगा।
कोरोना संकट के चलते जो लोग गांव में लौट कर आए हैं या वहीं रह रहे हैं और बेरोगार होने के कारण निराशा में दिन काट रहें है उनकी मनःस्थिति समझे बिना इस मानव शक्ति का देश हित में उपयोग हो पाना कठिन है। इससे पार कितना आवश्यक है, इसके हर पक्ष को गांधी जी ने समझा था। उनका कहना था, हर हिंदुस्तानी इसके अपना धर्म समझे कि जब-जब और जहां-जहां मिले वहां वह हमेशा गांवों की बनी चीजें ही बरते। अगर ऐसी चीज की मांग पैदा हो जाए तो जरा भी शक नहीं कि हमारी ज्यादातर जरूरतें गांवों से पूरी हो सकती है। इसलिए उनके विचार व्यवहार रूप में गांव-गांव तक पहुंचे।
आज की चुनौती स्वदेश प्रेम के साथ विज्ञान और तकनीक के ज्ञान का समझदारी पूर्ण उपयोग करने के लिए लोगों को तैयार करने की है। पश्चिम की नकल में हमने भारत में शहरीकरण को लक्ष्य बना लिया। इससे गांव खाली होते गए और शहरों में नारकीय जीवन जीने को विवश करने वाली झुग्गियां बढ़ती रहीं। नेता अनाधिकृत कालोनियों को वैध कराते रहे। इससे विकास यात्रा अस्त-व्यस्त् हो गई और असमानता बढ़ती गई। कोरोना संकट ने विकास की इस अवधारणा की कलई खोल कर रख दी है। यह चेत जाने का समय है। यही समय है गांवों के सरकारी स्कूलों के कायाकल्प का। एक स्वच्छ-सक्रिय, अनुशासित स्कूल लोगों के आकर्षण का केंद्र बना सकता है। वह परामर्श और स्थानीय उत्पादन कौशल सीखने का केंद्र भी बन सकता है। करीब चार दशक पहले मघ्य प्रदेश शासन ने एक गांधीवाद अध्यापक प्रेमनाथ रूसिया की पहल पर गांवों के स्कूलों को सुतली देकर टा-पट्टी बनाने का कार्य शुरू कराया था। मैं जिस प्रकार के स्कूलों की संकल्पना प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं उसके मुख्य उद्देश्य स्कूलों की साख लौटाना, उनकी स्वीकार्यता बढ़ाना और माता-पिता के मन में यह भावना पैदा करना है कि उन्हें महंगे निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ना आवश्यक नहीं है। चीन और जापान इसके अग्रणी उदाहरण है कि उनकी विकास प्रक्रिया की सफलता का मूल कारण प्रारंभिक शिक्षा में असमानता का प्रवेश पूरी तरह निषिद्ध कर देना रहा। भारत ने संविधान मे तो वायदा किया कि समानता के अवसर सभी को उपलब्ध होंगे, मगर व्यवहार में सरकारी स्कूल अपनी साख खोते गए। इससे निजी स्कूलों ने नया सुरक्षित क्षेत्र खोज लिया और लोगों के सामने उनके दरवाजों पर दस्तक देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा।
इस समय नई रोजगार और उत्पादन नीति में स्कूल सुधार को सम्मिलित करना आवश्यक है। केंद्र सरकार को यह तथ्य स्वीकार करना होगा कि अधिकांश राज्य स्कूलों में सुधार के लिए आवश्यक धन आवंटन नहीं कर पाएंगे। केंद्र सरकार समर्थित एक बड़ी योजना की आवश्यकता होगी। इसमें किया गया निवेश अन्य क्षेत्र में किए गए निवेश से अधिक लाभांश देगा। इस सुधार को युद्धस्तर पर लागू करने से ही आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना सफल होगी। (लेखक शिक्षाविद् है)
लेखक - जगमोहन सिंह राजपूत
साभार - जागरण
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