शिक्षा शब्द सुनते या पढ़ते ही एक स्कूल की छवि मन-मस्तिष्क में कौंधती है। जब कभी मैं लोगों को यह बताता हूं कि मैं शिक्षा-विभाग में पढ़ाता हूं तो वे यह सोचने लगते हैं कि मैं विवि के शिक्षा-विभाग में शिक्षण-कार्य से जुड़ा हूं या कोई प्रशासनिक अधिकारी हूं? अपने अध्यापन कार्यकाल के लगभग 23 वर्ष बीत जाने के पश्चात भी तूझे अपना विषय समझाना पड़ता है। आखिर लोग शिक्षा को एक शैक्षिक विषय क्यों नहीं मान पाते? शिक्षा एक अंतःविषयक अनुशासन है, परंतु इसका यह अर्थ कभी नहीं था कि यह विषय अन्य अनुशासनों की तरह एक अनुशासन के रूप में स्थापित न हो पाएगा। जो लोग शिक्षा को एक अनुशासन के रूप में मानने या जानने में असफल रहे हैं, यह उनकी कमी नहीं है। यह कमी शिक्षा-विभागों एवं शिक्षा-संकायों में अध्यापन करने वाले उन सभी लोगों की भी है जो शिक्षा को आज भी एक अनुशासन के रूप में स्थापित नहीं कर पाए। 60 वर्ष पहले जब कोठारी कमीशन ने शिक्षा को अध्यापक-शिक्षा से जोड़कर शिक्षण ट्रेनिंग के बजाए एक अकादमिक विषय के रूप मं स्थापित करने की बात कहीं थी तभी शिक्षा को एक अनुशासन का दर्जा मिलने का रास्ता साफ हो गया था, फिर भी शिक्षा को किसी ने अन्य विषयों की तरह पढ़ने-पढ़ने का दर्जा नहीं दिया।
रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाला गणित समझना और उससे अपनी गणित संबंधी चिंताओं को निदान कर लेना हमें गणितज्ञ होने का भ्रम नहीं दे सकता। इसी प्रकार शिक्षा की जाने वाली आलोचना किसी को शिक्षाविद घोषित नहीं कर सकती। देोनों बातों में स्पष्ट अंतर समझा जाना चाहिए। एक व्यावहारिक रूप में सामान्य समझ का परिणाम है जबकि दूसरी सैद्धांतिक अध्ययन एवं शोध पर आधारित विशेषज्ञता है। शिक्षा के दो विशिष्ट स्वरूप है। एक स्वरूप इसका उदार पक्ष है जो समाज-विज्ञान के किसी भी विषय की तरह पढ़ा एवं समझा जाता है। इसका दूसरा स्वरूप प्रोफेशनल-शिक्षा का हिस्सा है, जिसका कार्य शिक्षा-संस्थानों एवं विद्यार्थियों से जुडी विभिन्न समस्याओं पर शोध को बढ़ावा और शिक्षण-पद्धतियों को अधिक रुचिकर बनाना है। शिक्षा के पहले स्वरूप को बीए तथा एमए (एजुकेशन) के साथ बढ़ावा दिया जाता है या यूं कहें कि उदार अनुशासन के रूप में पढ़ा एवं पढ़ाया जाता है। वहीं इसके दूसरे प्रोफेशनल स्वरूप को बीएड़, एमएड, डीएड या बीएलएड के माध्यम से पहचाना जाता है। इसके हम संक्षेप में अध्यापक-शिक्षा कहते हैं जो अध्यापक बनने के लिए वांछित प्रोफेशनल शिक्षा है। शिक्षा के उदार पक्ष और उसके प्रोफेशनल पक्ष का अध्ययन क्रमश एमए (एजुकेशन) एवं एमएड से जाना जा सकता है। इनके अंतर को समझने के लिए आप मनोवैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक का उदाहरण ले सकते है। किसी न किसी रूप में मनोवैज्ञानिक तो हम सभी हैं-एक अध्यापक के रूप में माता-पिता के रूप में, किंतु मनोचिकित्सक केवल सलाह-मशविरा ही नहीं देता, बल्कि आवश्यक दवा भी देता है।
भारत में भी प्रोफेशनल-शिक्षा को बढ़ावा देने एवं इसके गुणात्मक विकास कके लिए विशिष्ट प्रोफेशनल नियामक संस्थाओं की स्थापना की गई है। चिकित्सा-शिक्षा के लिए मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया, कानूनी-शिक्षा के लिए बार काउंसिल आॅफ इंडिया, कानूनी-शिक्षा के लिए बार काउंसिल तथा इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एआइसीटीई नाम की संस्थाओं को अनुमति देती हैं, बल्कि समय के अनुरूप प्रोफेशनल कोर्स की आवश्यकताओं एवं चुनौतियों को भी परिभाषित करती हैं। इसी प्रकार अध्यापक-शिक्षा की संस्थाओं के नियमन के लिए एनसीटीई नामक संस्था 1993 में संसद के एक अधिनियम द्वारा स्थापित की गई। उपने प्रारंभ से ही इसकी अधिकांश ऊर्जा अध्यापक-शिक्षा के नए खुल रहे संस्थानों को मान्यता देने संबंधी कार्यो में ही खर्च होती रही है। इसकी चार क्षेत्रीय शाखाएं भी हैं परंतु उनका ध्यान भी कमोबेष नए बीएड संस्थाओं की मान्यता देने और उनके इंफ्रास्ट्रक्चर की जांच करने में ही लगा रहा। अध्यापक-शिक्षा के स्वरूप में सुधार एवं उन्हें समय के अनुरूप बदलने जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए संस्था के पास एक भी अकादमिक स्थायी सदस्या या यूनिट नहीं है। इसके लिए एनसीटीई उधार के विशेषज्ञों पर ही निर्भर रहती रही है। अध्यापक-शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षकों के माध्यम से ही हम विद्यालयों में विद्यार्थियों तक प्रभावी रूप से पहुंच सकते है और अपनी कक्षाओं को रोचक, नवाचारी एवं आलोचनात्मक चिंतन का केंद्र बना सकते हैं। अध्यापक-शिक्षा के संस्थानों में आ रही निरंतर गिरावट का एक प्रमुख कारण इन अध्यापक-शिक्षकों की भर्ती एवं पदोन्नति के समय अपनाया जाने वाला मापदंड भी है। इस मापदंड का निर्धारण मुख्य रूप से यूजीसी द्वारा किया गया है।
अब जब नई शिक्षा नीति लागू होने जा रही है तब एनसीटीई को अपनी महमी भूमिका को समझना होगा, जो प्रशानिक के साथ-साथ अकादमिक भी है। इसे अध्यापक-शिक्षा के पाठ्यक्रम, स्कूल-इंटर्नीशिप के साथ-साथ अध्यापक-शिक्षा संस्थानों के क्रियाकलापों के विशिष्ट स्वरूप को ध्यान में रखते हुए भर्ती एवं पदौन्नति के नियमों में वांछित एवं अपरिहार्य परिवर्तन करने होंगे। ये परिवर्तन न केवल अध्यापक-शिक्षकों को प्रेरित करें, बल्कि उनकी प्रोफेशनल-ग्रोथ में भी स्वीकार्य हों। अध्यापक-शिक्षा के संस्थानों में प्रशासनिक एवं अकादमिक कार्यों की समय-समय पर समीक्षा करना और अध्यापक-शिक्षकों संस्थानों की कार्य-संस्कृति एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित करना एक वृहद शैक्षिक सुधार है। इन सुधारों को लेकर एनसीटीई को बिना किसी विलंब के सार्थक प्रयास करने होंगे। (लेखक दिल्ली विवि के केंद्रीय शिक्षा संस्थान के प्रोफेसर हैं)
लेखक पंकज अरोड़ा
साभार जागरण
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