आखिरकार नई शिक्षा नीति का इंतजार खत्म हुआ। अच्छा होता कि शिक्षा नीति को नया रूप देने में 34 साल का लंबा समय नहीं लगता। चूंकि मोदी सरकार को भी नई शिक्षा नीति को अंतिम रूप देने की जरूरत से ज्यादा समय लग गया इसलिए। यह तत्परता तभी कारगर साबित होगी जब राज्य सरकारें सहयोग का परिचय देंगी और वह समझेगी कि शिक्षा दलगत राजनीति का विषय नहीं है। यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि विभिन्न राजनीतिक दल नई शिक्षा नीति को संकीर्ण राजनीतिक चश्मे से देखे और इसके लिए कोशिश करें कि उसके मसैदे को संसद से जल्द से जल्द मंजूरी मिले। यह संभव है कि हर कोई नई शिक्षा नीति के सभी प्रावधानों से सहमत न हो, लेकिन ऐसे लोग यह ध्यान रखें कि शिक्षा ही देश के भविष्य का निर्धारण करती है। नई शिक्षा नीति में व्यापक बदलाव समय की मांग थी। यह अच्छा है कि मांग पूरी होती दिख रही है, क्योंकि एक और जहां पांचवी कक्षा तक के बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था के साथ स्कूली शिक्षा के ढांचे में व्यापक परिवर्तन किया जता है वहीं उच्च शिक्षा के स्तर पर भी तमाम अपेक्षित संशोधन किए गए हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों के संचालन के लिए एक ही नियामक बनाने और विवि एवं उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में प्रवेश के लिए एक ही साक्षा प्रवेश परीक्षा कराने के जो प्रावधान किए गए हैं उनसे बेहतर नतीजे सामने आने चाहिए। निःसंदेह सीभी सरकारी और निजी उच्च शिक्षण संस्थानों में एक तहत के मानदंड लागू करना आवश्यक हो गया था, लेकिन इस क्रम में यह देखना होगा कि नौकरशाही अड़ंगे लगाने का काम न करने पाएं। नई षिक्षा नीति का सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह है कि जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को पूरा करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि अभी बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का ढांचा संसाधनों के अभाव का सामना कर रहा है। हमारे नीति-नियंताओं को इससे भी अवगत होना चाहिए कि कोई नीति कितनी भी अच्छी क्यों न हो, बात तब बनती है जब उसे लागू करने वाले उसके प्रति समर्पण भाव दिखाते है। यह खास तौर पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि उपयुक्त शिक्षकों के बिना शिक्षा में सुधार संभव नहीं। वास्तव में जितना ध्यान योग्य शिक्षक तैयार करने पर दिया जाना चाहिए उतना ही स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन के माहौल को बेहतर बनाने में भी
साभार जागरण
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