कम होना चाहिए पढ़ाई का बोझ

हर पीढ़ी को सबसे अधिक चिंता भविष्य की पीढ़ी की ही होती है। सभी का प्रयास यही रहता है कि बच्चों और युवाओं को अपने से और आज से अधिक सुनहरा और परिपूर्ण जीवन मिले। मानव सभ्यता के विकास के लक्ष्य में यह बात समाहित है। मनुष्य के पास यह समझ भी विकसित हो चुकी है कि किसी एक समूह का भविष्य सुनहरा हो जाए और अन्य का न हो तो बात बनेगी नहीं। गांधी जी ने जाॅन रस्किन की पुस्तक ‘अन टू दिस लास्ट’ पढ़कर अपनी आत्मकक्षा में जो सूत्र लिखे थे उनमें पहला यही था कि सबकी भलाई में ही प्रत्येक की भलाई संभव है। प्राचीन भारतीय दर्शन में भी निहित ‘सर्व भूत हिते रत’ और सर्वे भवंतु सुखिनः’ इसी को लगातार प्रकट करते रहे हैं। सभी की शिक्षा और समग्र विकास की अवधारणाएं सुनहरे भविष्य की वैश्विक संकल्पना को साकार करने के महत्वपूर्ण प्रयास हैं।


बहुधा दोहराया जाता है कि सुनहरे भविष्य का रास्ता तो स्कूलों के दरवाजों से निकल कर ही जाता है। किसी भी देश का भविष्य इस पर निर्भर करता है कि उसकी शिक्षा की गुणवत्ता किस स्तर की है। उसमें कौशलों का स्थान कितना महत्वपूर्ण है और व्यवस्था कितनी चाक-चैबंद है। इस समय हर तरफ और हर जगह शिक्षा की स्थिति एकाएक असमंजस की बन गई है। कोरोना महामारी के कारण लगभग 200 करोड़ बच्चों की शिक्षा सारे विश्व में प्रभावित हुई है। आगे की स्थिति भी डावांडोल है। स्कूल कब खुलेंगे, कोई नहीं कह सकता है। माता-पिता घबराहट में है। स्कूल खुलने पर भी बच्चों को वहां भेजने के लिए अभी तो तैयार नहीं दिखते है। आॅनलाइन शिखा की अपनी समस्याएं हैं, लेकिन स्कूल बंद रहते हुए हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो यह कहीं श्रेष्ठतर विकल्प है। वैसे सामान्य परिस्थितियों में भी ऑनलाइन शिक्षा ने अपना स्थान बना लिया है और इसका सकारात्मक उपयोग आगे भी होता रहेगा।


इस समय की सबसे बड़ी समस्या यह है कि 2020-21 सत्र के लिए बच्चे किस प्रकार तैयर किए जाएं? किस प्रकार उनके अंदर जो घबराहट, चिंता और अनिश्चितता छा गई है उससे उन्हें बाहर निकाला जाए। अनेक उपायों पर विचार हो रहा है। इस स्थिति का गहन मंथन कर सीबीएसई (सीबीएसई) ने पाठ्यक्रम के लगभग 30 प्रतिशत भाग को अध्यापन और मूल्यांकन से बाहर कर दिया है। इस श्रेणी के पाठ पुस्तकों में तो बने रहेंगे, मगर उन पर परीक्षा में प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे। इस निर्णय से स्कूल के बच्चों में एक नए उत्साह और प्रसन्नता की लहर दौड गई है। पहली अपेक्षा तो यहीं है कि सभी राज्यों के स्कूल बोर्ड भी ऐसा ही करेंगे। देश के सबसे बड़े स्कूल बोर्ड यूपी पिछले तीस वर्षो से चर्चा का विषय रहा है। देश का ध्यान इस पर 1990-91 में गया था जब प्रसिद्ध लेखक आरके नारायण ने राज्यसभा में एक अत्यंत मार्मिक भाषण दिया था। उसके बाद व्यावहारिक सुझाव देने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद् प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई थी। उन्होंने बस्ते का बोझ घटाने के लिए कई सुझाव दिए थे, लेकिन तत्कालीन संप्रग सरकार ने उन पर गौर करना मुनासिब नहीं समझा।


इस समय देश के स्कूली शिक्षा में 2005 में बनाए गए पाठ्यक्रम और उसके अनुसार बनी पाठ्य पुस्तके ही चल रही है। सामान्यतः शिक्षा के क्षेत्र में सजग और सतर्क देशों में पाठ्यक्रम औश्र पुस्तके हर पांच वर्ष में बदली जाती है। इस आवश्यकता को ह रवह व्यक्ति समझ सकता है। जो इस समय की परिवर्तन की तेजी से परिचित है। मई 2014 के बाद से शिक्षा से जुड़े सभी लोगों को अपेक्षा थी कि यह कार्य अपेक्षित प्राथमिकता के साथ किया जाएगा, परंतु यह अभी तक हो नही सका है। जो पुस्तकें जाने-माने वामपंथी व्यक्तियों द्वारा बनवाई गई थीं, वे आज भी बदली नहीं गई है। यह आश्चर्य की स्थिति है, मगर इस अर्थ में सराहनीय भी है कि 2014 के बाद की केंद्र सरकार ने बदले की भावना से पुस्तकें और पाठ्यक्रम नहीं बदले। जैसा कि मई 2004 के बाद किया गया था।


यहां पर एक घटना को याद करना अत्यंत रुचिकर होगा। 2000-01 में एनसीईआरटी के अनुरोध पर सीबीएसई ने कक्षा आठ की इतिहास की पुस्तक से एक अंश हटाया था जिसमें लिखा था कि दिल्ली, आगरा और मथुररा के आसपास एक नई जाट शक्ति का उदय हुआ। उन्होंने भरतपुर में अपनी रियासत स्थापित की। वहां से उन्होंने आसपास के इलाकों में लूटपाट की और दिल्ली दरबरा की साजिशों में भाग लिया। अनेक इतिहासकारों और संस्थाओं ने लगातार सुझाव दिए कि इसे तथ्यपरक बनाए जाए, मगर उस पर ध्याान नहीं दिया गया। जब डाॅ मुरली मनोहर जोशी ने इसका अध्ययन कराकर इसे हटवाया तो इसे भगवाकरण कहा गया। मई 2004 में नई सरकार ने इसे तुरंत वापस लाने का आदेश दिया। 2006-07 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के पहले जाट समुदाय ने फिर यह प्रकरण उठाया। शास्त्री भवन में प्रातः बैठक हुई और आदेश दिया गया कि इसे फिर से हटा दिया जाए। सीबीएसई ने आदेश माना और उसे हटा दिया। वे लोग जो यह सब चुपचाप देखते रहे, आज सीबीएसई के पाठ्यक्रम को 30 फीसदी कम करने को विवादित बता रहे हैं। साफ है कि भूल गए हैं कि पिछले छह वर्षों में केंद्र सरकार ने वैसा कोई कदम नहीं उठाया है जैसा पहले किया गया था। (एनसीईआरटी के चेयरमैन रहे लेखक शिक्षा एवं समाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)


लेखक जगमोहन सिंह राजपूत
साभार जागरण

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