बच्चे देश का भविष्य है। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि बच्चों को इस तरह से गढ़ा जाए कि वे एक सम्वक व्यक्तित्व के रूप में विकसित होकर राष्ट्र निर्माण में योगदान कर सके। बच्चों को इस दिशा में तैयार करने में सबसे बडी भूमिका स्कूली शिक्षा की होती है। स्कूली शिक्षा की विस्तृत रूपरेखा यानी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा यानी एनसीएफ पर पुनर्विचार करने की घोषणा हाल में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी ने मानव संसाधन मंत्रालय की पहल पर की है। एनसीईआरटी स्कूली शिक्षा के संबंध में नीतियां बनाने और पुस्तके तैयार करवाने का काम भी करती है। सवाल है कि एनसीएफ पर पनर्विचार करने की जरूरत क्यों है? समय के साथ हो रहे बदलावों के अनुरूप स्कूली पाठ्यक्रमों में परिवर्तन किया जा सके और पहले की कमियों को सुधार जा सकें, इसके लिए 10 से 15 वर्षों में एनसीएफ में संशोधन किया जाता है। एनसीएफ को अब तक चार बार 1975, 1988, 2000 और 2005 में संशोधित किया गया है। पिछला परिवर्तन 15 साल पहले 2005 में किया गया था। हालांकि उसके पांच साल पहले ही 2000 में एक संशोधन किया गया था, लेकिन 2004 में कांग्रेस-वामपंथ के गठजोड़ वाली सरकार बनते ही आनन-फानन में अपने वैचारिक एजेंडे के तहत एक नया एनसीएफ बना दिया गया। हालांकि उस बदलाव का कोई ठोस कारण नहीं बताया गया। बस इतना उल्लेख है कि बच्चों पर बढ़ते पाठ्यचर्या के बोझ को देखकर इस पुनरावलोकन की जरूरत है। एनसीएफ-2005 के आलोक में छपी पुस्तकों को देखे तो ठीक इसके उलट बच्चों के लिए बोझ एवं जटिलता और बढ़ ही गई है। इसके अतिरिक्त एनसीएफ-2000 में शामिल अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं को वैचारिक दबाव में जानबुझकर छोड़ दिया गया।
एनसीएफ-2000 के मार्गदर्शक निर्देश-उद्देश्य को देखें तो उनमें मूल्यपरक शिक्षा, चरित्र निर्माण, देशप्रेम, राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का भाव के साथ-साथ मौलिक अर्तव्यों को शामिल किया गया था। मौलिक कर्तव्यों में संविधान का पालन, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रगान का आदर करना, भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखना, राष्ट-सेवा हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देना आदि शामिल है। बताने की जरूरत नहीं कि उपरोक्त तत्व हर देष के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते है। दुर्भाग्य से वैचारिक एजेंडे के तहत इनमें से अधिकांश चीजें एनसीएफ-2005 में छोड़ दी गई। नया के नाम पर एनसीएफ -2005 में बाल केंद्रीत दृष्टिकोण, बिना बोझ के सीखने और इसे आनंददायी बनाने पर जोर दिया गया, लेकिन पुस्तकों को देखें तो बात उलटी नजर आती है। उदाहरण के लिए कक्षा छह के 10-11 साल के बच्चों की नागरिक जीवन वाली पुस्तक में ‘रूढ़िबद्ध धारणा’ और ‘पूर्वाग्रह’ जैसी जटिल अवधारणाएं है। इसी तरह ऐसे टेढे सवाल है ‘आपको क्या लगता है कि विविधता की समृद्ध विरासत के साथ भारत में रहना आपके जीवन में कुछ जोड़ता है? अथव समानता के संबंध में संविधान क्या कहता है? आपको क्यों लगता है कि सभी लोगों के लिए समान होना महत्वपूण्र है? क्या 10-11 साल का बच्चा ऐसे जटिल-कठिन समाज-मनोवैज्ञानिक चीजों को ठीक-ठीक समझ सकता है? ऊपर से मजाक यह है कि एनसीएफ-2005 बाल केंद्रीत है। सवाल यह भी है कि क्या इतने कोमल मन को पूर्वाग्रह जैसी नकारात्मक चीजें पढ़ानी चाहिए? ये चीजें जरूर पढ़ाई जाएं लेकिन थोडी ऊंची कक्षाओं में । बच्चे क्या पढ़े और कब पढ़ें यह बहुत ही जिम्मेदारी से निर्धारित करना चाहिए।
इतिहास का पाठ्यक्रम देखें तो भारत के गौरवाशाली अतीत-परंपराओं की या तो अनदेखी कर दी गई है या उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। प्रख्यात इतिहासकार केपी जायसवाल के अनुसार प्राचीन भारत में लोकतंत्र की अवधारणा रोमन या ग्रीक लोकतंत्र प्रणाली से भी पुरानी है, लेकिन एनसीईआरटी की पुस्तक में भारतीय लोकतंत्र की चुप्पी है। इसी तरह दुनिया भर में डंका बजा रहे आयुर्वेद और योग विद्या आदि अभी की पुस्तकों में सिरे से गायब है। गणना क्षमता को कई गुना बढ़ा सकने वाले वैदिक गणित को पढ़ाना तो दूर, पाठ्यक्रमों में उल्लेख तक नहीं है। पश्चिमों विचारधाराओं से आक्रांत शिक्षाविदों ने कम से कम पश्चिम के ही अमेरिकी इतिहासकार डेविड मैककुलों के इस कथन को याद कर लिया होता कि जो राष्ट्र अपने अतीत को भूल जाता है उसकी स्थिति उस व्यक्ति से भी बदतर है, जिसकी स्मृति चली गई है। इसी तरह लिखा गया है कि महिलाओं को वेद अध्ययन या अन्य अधिकार नहीं थे, जबकि यह विदित है कि लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, सावित्री, रोमशा, वैवस्वती, श्रद्धा जैसी अनेक स्त्रियों ने तो कई सूक्त रचे थे।
सच पूछें तो एनसीएफ-2005 और उसके परिपे्रक्ष्य में तैयार हुई पुस्तकों पर बहुूत पहले ही समग्र पुनर्विचार शुरू हो जाना चाहिए था। यह इसलिए भी जरूरी है कि पिछले 15 वर्षों में देश-दुनियां में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास एवं परिवर्तनों को भी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा सके। वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता में बने रहने के लिए देष के भावी नागरिकों को इन अद्यतन विषयों अवधारणों मसलन रोबोटिक्स आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, डाटा साइंस साइबर सिक्योरिटी, पर्यावरण और विकास की नई चुनौतियां से अवगत करना जरूरी है। देर से आयद यह पुनर्विचार उम्मीद है दुरुस्त भी होगा, पर इसके लिए योग्य शिक्षाविदों का सहयोग अनिवार्य होगा।
(लेखक दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं)
लेखक निरंजन कुमार
साभार जागरण
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