प्रधानमंत्री के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो कि हमारा शैक्षिक ढ़ांचा वर्षों से जिस पुराने ढर्रे पर चल रहा था उसके कारण नई सोच और ऊर्जा को बढ़ावा नहीं मिल सका। इसके साथ-साथ अन्य अनेक कारणों ओर विशेष रूप से दुनिया में तेज गति से हो रहे बदलावों के चलते नई शिक्षा नीति आवश्यक हो चुकी थी। चूंकि नई शिक्षा नीति आने में तीन दशक से ज्यादा का समय लग गया इसलिए इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है कि उस पर अमल प्राथमिकता के आधार पर किया जाए। यह अच्छा है कि प्रधानमंत्री ने इस बात को महसूस किया कि लोगों के मन में यह सवाल हो सकता है कि आखिर इतना बड़ा सुधार कागजों पर तो कर दिया गया, लेकिन इसे जमीन पर कैसे उतारा जाएगा? निःसंदेह यह एक चुनौती है और उससे पार पाने में सफलता तभी मिलेगी जब राज्य सरकारें दलगत राजनीति से परे हटकर नई शिक्षा नीति के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाएंगी। यह एक शुभ संकेत है कि ज्यादातर राज्य सरकारें नई शिक्षा नीति को उपयोगी मान रहीं ळैं, लेकिन केवल इतने से बात नहीं बनेंगी। उन्हें उन तत्वों को हतोत्साहित करना होगा जिन्होंने संकीर्ण राजनीतिक कारणों से नई शिक्षा नीति का अध्ययन किए बगैर ही उसके खिलाफ बयान दाग दिए। नई शिक्षा नीति को संघ विरोध और राजनीतिक संकीर्णता से बचाने की जरूरत है। स्पष्ट है कि सभी राज्य सरकारों को इसके भावना के संकीर्णता लागू हो। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि शैखिक ढांचे को दुरुस्त करने के मामले में पहले ही बहुत देर हो चुकी है। चुनौती केवल नई शिक्षा नीति को लागू करने की ही नहीं है, पाठ्यक्रम में सुधार के काम में वैसा विलंब न होने पाए जैसे नई शिक्षा नीति को तैयार करने के मामले में हुआ है। केंद्र सरकार और विशेष रूप से शिक्षा मंत्रालय को यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि राज्य सरकारें के साथ शैक्षिक संस्थानों के प्रतिनिधियों, शिक्षाविदों और शिक्षकों की भी नई शिक्षा नीति को लागू में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इसका उल्लेख करते हुए यह रेखांकित किया कि इस मामले में वह राजनीति इच्छाशक्ति का परिचय देने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उन्हें इसका भी आभास होना चाहिए कि ऐसी ही प्रतिबद्धता का परिचय वह नौकरशाही भी दे जिस पर नई शिक्षा नीति के अमल की जिम्मेदारी आनी है।
साभार जागरण
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