अपने ही गढ़ में कमजोर होती हिंदी

हिंदी अपने गढ़ में ही कितनी दुर्दशाग्रस्त हैं, इसका अंदाजा यूपी बोर्ड की हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं में इस वर्ष आठ लाख परिक्षार्थिंयों के हिंदी में फेल होने से लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश की स्कूली शिक्षा में हिंदी का लचर प्रदर्शन कोई पहली बार नहीं हुआ है। पिछले वर्ष यूपी बोर्ड की 10वीं और 12वीं की परीक्षा में 10 लाख विद्यार्थी हिंदी में फेल हुए थे और 2018 में यूपी बोर्ड की 10वीं और 12वीं परीक्षाओं में 11 लाख से अधिक विद्यार्थी हिंदी में असफल रहे थे। ंिहंदी की कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य हिंदी भाषी राज्यों में भी है। हिंदी की चिंतित करनेवाली इस दशा का एक कारण तो यही है कि किशोर और नौजवान हिंदी के पाठ्यक्रम को गंभीरता से नहीं लेते। उनके अभिभावक भी हिंदी को गंभीरता से नहीं लेते। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं तथा इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में हिंदी अनिवार्य किया गया होता तो कोई भी अभिभावक हिंदी को कम प्राथमिकता नहीं देता। बच्चे भी हिंदी को अधिक गंभीरता से पढ़ाया जाता था। शिक्षक विद्यार्थियों से बोल-बोलकर हिंदी में गिनती, पहाड़े और कविता रटवाते थे। हिंदी में बोलकर लेखन अभ्यास कराते और सुलेख लिखवाते थे। हिंदी को इतने सरस ढंग से पढ़ाते थे कि विद्यार्थियों में स्वतः रुचि जग जाती थी। हाई स्कूल और इंटर की कक्षाओं में हिंदी को सरस और सहज ढंग से नहीं पढाए जाने का ही परिणाम है कि हिंदी शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों में रुचि खत्म होती गई है।


हिंदी पट्टी में कहां तो हिंदी के प्रति गर्व का बोध होना चाहिए था, परंतु उसके प्रति उदासीनता व्याप्त है। विडंबना यह है कि यह उदासीनता बढ़ती जा रही है। हिंदी की दुर्दशा का एक अन्य कारण नई पीढ़ी में इंग्लिश की स्वीकृति है। इसके घातक नतीजे अब सबके सामने है। परीक्षार्थी विश्वास को कानफिडेंस लिखेगा तो कैसे उत्तीर्ण होगा? जिन शब्दों के प्रयोग होने से भी हिंदी कमजोर हो रही है। यदि सीढ़ी अपनी महत्ता खो देंगे। हां, जिन शब्दों के लिए हमारी भाषा में बेहतर विकल्पव नहीं हैं, वो तो चल जाएंगे। आखिर हम पिछले चार महीने से कोरना काल में क्वारंटाइन औश्र लाॅकडाउन शब्द चला ही रहे है। अकादमिक और सांस्कृतिक जगत में आॅनलाइन संगोष्ठी के लिए वेबिनार शब्द भी चला रहें है।


निःसंदेह हिंदी दूसरी भाषाओं से भी समृद्ध हुई है। अंग्रेजी के साथ अन्य दूसरी भाषाओं के शब्द हिंदी में इस कदर प्रचलित हैं कि लगता नहीं नहीं कि वे दूसरी भाषा के शब्द है। अंग्रेजी शब्द फ्रेंच का है जिसे हम बेधडक इस्तेमाल करते है। तुरुष डच का शब्द है जो हिंदी में खूब चलता है। इसी तरह हिंदी ने तुर्की से आका, कालीन, काबू कैंची, तोप, तलाश, बेगम, लाश, कुली, चमचा, तमगा, लफंगा, सुराग, लाल्टी आदि शब्द ग्रहण किए है। पुर्तगाल से अनन्नास, आलमारी, आलपीन, बाल्टी, किरानी और तंबाकू आदि लिए हैं। हिंदी ने फारसी से अफसोस, आबदार, आबरू, आतिशबाजी और तरकश आदि शब्द लिए है। अरबी से अदावत, अजीब, अक्ल, कीमत और दावत आदि शब्द हिंदी का हिस्सा बने है। इसी तरह हिंदी में उपन्यास, गल्प, कविराज, गमछा, छाता, रसगुल्ला आदि बांग्ला से आए है। ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाओं से हिंदी ने ही शब्द ग्रहण किए हैं। दूसरी भाषओं ने भी हिंदी से शब्द ग्रहण किए है। यह होना चाहिए, लेकिन यह ठीक नहीं कि हिंदी में बेहतर विकल्प होने के बावजूद उनकी जगह अंग्रेजी शब्द नाहक चलाए जाएं।


हिंदी दूसरी भाषाओं और स्वयं अपनी बोलियों से भी स्त्रोत ग्रहण करती रही है, कदाचित इसीलिए वह नीरभरी नदी बन पाई है, लेकिन तथ्य है कि हिंदी समाज में हिंदी के लाखों शब्द अस्पृश्य बने हुए हैं। हिंदी की दुर्दशा केवल स्कूली शिक्षा तक सीमित नहीं है। विभिन्न विवि तथा महाविद्यालयों में हिंदी में एमए के अधिकतर विद्यार्थियों और एमफिल तथा पीएचडी के अधिकतर शोधार्थियो में भी भाषा का संस्कार-अनुशासन नहीं है। हिंदी माध्यम से एमए, की पढ़ाई कर रहे अथवा शोध कर रहे अधिकतर विद्यार्थियों को कि और की में ये अंतर नहीं पता। इसी प्रकार कार्यवाही तथा कार्रवाई का अंतर नहीं पता। दुखद यह है कि बहुत कम लोग है कि बहुत कम लोग है कि जिनकी इन गलतियों को सुधारने में रुचि है।


कोई भाषा ही उस समाज की आशा होती हैं। हिंदी केवल एक भाषा ही नहीं है, एक संस्कृति और जीवन शैली की संरक्षक भी है। हिंदी कमजोर होती जाएगी तो उसमें रची-बसी संस्कृति और संस्कार दिवाला पिट जाएगा। हिंदी को कमजोर होने से बचाने का एक उपाय नौकरी के लिए उसे अनिवार्य करना और हिंदी के प्रति प्रेम बढ़ाने का ठोस उपक्रम करना है। सबसे आवश्यक है कि हिंदी भाषी उसके प्रति गर्व का भाव पैदा करे। हिंदी पट्टी के राज्यों में अपनी भाषा, उसके साहित्य और कला-संस्कृति के प्रति वांछित प्रेम नहीं है। पढने का संस्कार परिवार में रोपा जाता है। फिर स्कूल-काॅलेज में उसे सींचा जाता है, पर ऐसा नहीं हो रहा है। मातृभाषा को अपने समाज में पुनः प्रतिष्ठित करके और हिंदी के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करके ही हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचा पाएंगे। तकनीक के युग में हमें अपनी भाषा के प्रति और सजग होने की आवश्यकता है। (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में प्रोफेसर हैं)


लेखक कृपाशंकर चैबे
साभार जागरण

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