जड़ों से जुड़ी और आधुनिकता की ओर

चौंतीस साल बाद देश में नई शिक्षा नीति आई है। वर्ष 1986 में जो नई शिक्षा नीति बनी थी, उसे 1992 में जारी किया गया, पर कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। जबकि दुनिया के तमाम देशों ने 21वीं सदी में शिक्षा के स्वरूप से संबंधित तैयारियां की थीं। यूनेस्को ने भी इस संबंध में एक रिपोर्ट तैयारी की थी, जिसका शीर्षक था-लर्निंग द ट्रेजर विदीन। इसे 1996 में जिनेवा में जारी किया गया था, जहां मैं भी मौजद था। वहां पर इसके अध्यक्ष ने कहा था कि दुनिया में शिक्षा अब न तो स्थानीयता को छोड़ सकती है और न अंतरराष्ट्रीयता को। विश्व में सारी शिक्षा व्यवस्थाएं राष्ट्र की आवश्यकताओं को प्राथमिकता देंगी और इसके लिए हर देश की शिक्षा व्यवस्था की जडे़ें गहराई तक उसकी संस्कृति में जारी चाहिए, पर नए ज्ञान और प्रगति के लिए हर तरफ प्रतिबद्धता भी दिखाई देनी चाहिए। जड़ से जुड़ी हुई लेकिन प्रगति के लिए प्रतिबद्ध।


इस समय जो नई शिक्षा नीति आई है, उसने इसे स्वीकारा है कि हर बच्चे को भारत की संस्कृति से परिचित होना चाहिए, देश के इतिहास और विरासत को जानना चाहिए, और नए ज्ञान की प्राप्ति के लिए नई से नई तकनीक का उपयोग करना चाहिए। यह निरंतरता की बात करती है, आधुनिकता की बात करती है और उत्कृष्टता की तरफ ले जाने के लिए भी प्रेरित करती है। संरचनात्मक बदलाव को लेकर जो सबसे बड़ी बात कही जा रही है, वह 5 3 3 4 है। इसे इस प्रकार समझना चाहिए कि इसमें केवल एक परिवर्तन हुआ है, तीन वर्ष के बाद अगले तीन वर्ष तक बच्चे को शिक्षा के उसी औपचारिक स्वरूप में शामिल कर लिया गया है, जो पहले कक्षा एक से कक्षा बारह तक के लिए था। पहले हम इसे आंगनबाड़ी के जिम्मे डालकर अलग कर देते थे, जो अब होगा। अब यह माना जा रहा है कि पहले के तीन वर्ष बच्चों की स्कूलिंग की तैयारी के लिए बड़े आवश्यक हैं। उसके विकास को मनोवैज्ञानिक ढंग से समझकर अच्छी तरह से शिक्षकों को प्रशिक्षित कर आगे बढ़ाया जाए। इससे उन बच्चों को लाभ होगा, जो नर्सरी कक्षा में गए बिना स्कूलों में भेज दिए जाते थे। यानी जो तबका आर्थिक दृष्टि से कमजोर था, उसको फायदा मिलने की पूरी संभावना है। यह आलोचना बेबुनियाद है कि इसमें पिछडे तबके के या विशेष क्षमता वाले बच्चों का ध्यान नहीं रखा गया है। मेरी अपेक्षा है कि सरकार शिक्षा के मूल अधिकार अधिनियम को बदले और अभी छह से चैदह साल तक क्षिक्षा को जो मूल अधिकार अधिनियम है, उसे तीन से अट्ठारह साल तक लागू करे। यानी तीन से अट्ठारह साल तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का उत्तरदायित्व सरकार को लेना होगा। ऐसे में, सरकार को शिक्षा पर निवेश भी बढ़ना होगा।


नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि परोपकारी और निजी पहल और प्रभावी ढंग से होनी चाहिए, साथ ही शिक्षा के व्यवसायीकरण का रोकने की व्यवस्था भी की गई है। फीस ढंाचे को विनियमित करने के लिए एक संस्था बनाने की भी बात कही गई है, ताकि इसे कोई व्यापार न बना पाए। हालांकि यह काफी चुनौतीपूर्ण है। सरकार इसे कैसे कर पाएगी, यह आने वाला समय ही बताएगा। इससे पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के बारे में भी कहा गया है। इसके लिए नया पाठ्यक्रम तैयार होगा, नई किताबें तैयार होंगी। बस्ते का बोझ घटने से बच्चों की आराम मिलेगा, उनके सोचने और कल्पना करने की शक्ति बढ़ेगी।


दुनिया भर में माना जाता है कि बच्चे की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए। शिक्षा मंत्री ने स्पष्ट कहा है कि किसी पर कोई भाषा पढ़ने या पढ़ाने का दबाव नहीं होगा। यह आरोप गलत है कि त्रिभाषा फाॅमूले के नाम पर गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी थोपी जाएगी। स्कूली शिक्षा पर राज्य सरकार का अधिकार है और तमिलनाडू ने पिछले तीस-चालीस साल से इसका गलत इस्तेमाल किया है। उसने छात्रों को हिंदी पढ़ने ही नहीं दिया।


कोई भी शिक्षा नीति तभी कारगर होगी, जब अध्यापक को सही वातावरण मिले, उसे प्रशिक्षण के अवसर मिलते रहें, संसाधनों की कमी न हो, ताकि वह अपने ज्ञान में वृद्धि कर सके। इस संबंध में कई संस्तुतियां की गई हैं, जो निश्चित रूप से हमारी शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाएगी। हमारे यहां उच्च शिक्षा में भी व्यवसायीकरण की समस्या है। एआईसीटी, एनसीटी जैसी संस्थाएं बनी है, पर वे इसमें सफल नहीं हो पाई हैं और शिक्षा में व्यवसायीकरण बढ़ा है, भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। इसलिए कहा गया है कि एक नियामक संस्था होगी, जो पूरे देश के लिए नियम बनाएगी और निकरानी करेगा। अब हर तरह के विश्वविद्यालयों में बहुत ज्यादा काॅलेजों को संबद्धता होती है, इसलिए उनके पास परीक्षा लेने के अलावा और कुछ करने का समय नहीं होता, उसे भी ठीक किया जाएगा और एक हायर एजुकेशन रेगुलेशन काउंसिल बनेगी, जो काॅलेजों में शिक्षा की गुणवत्ता की निगरानी करेगी।
किसी देश की शिक्षा नीति ऐसी नही बन सकती, जिससे हर कोई संतुष्ट हो। शिक्षा समाज जैसे विधितापूर्ण देश में ऐसी अपेक्षा करना तो अनुचित ही होगा। शिक्षा समाज में बदलाव लाती भी है और समाज की अपेक्षाओं के अनुसार अपने को बदलती भी है। इसमें कमियां हो सकती हैं, पर सबसे बड़ी आवश्यकता होगी कि सरकार वे संसाधन उपलब्ध कराए, जिससे सरकारी स्कूलों की साख बढ़े, क्योंकि मेरा मानना है कि भारत के समेकित और समग्र किकास का रास्ता गांवों के प्राइमरी स्कूलों से होकर जाता है। शिक्षा नीति तभी सफल होगी, जब सरकार के साथ समाज भी सजग होकर उसमे सहायता करे और उसका निरीक्षण भी करे।
लेखक- जगमोहन सिंह राजपूत (एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक और शिक्षाविद)
साभार- अमर उजाला


 

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