मोदी सरकार ने आखिरकार नई शिक्षा नीति घोषित कर दी है। प्राथमि शिक्षा में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाए जाने की जो बाल इस नीति में कही गई है, उसके आधार पर इस नीति को भारतीयता से ओतप्रोत कहा जा सकता है। इसमें पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा की पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कहीं गई है, जिसे आठवीं या उससे आगे की बात कहीं गई है, जिसे आठवीं या उससे आगे की कक्षाओं तक बढ़ाया जा सकता है। दुनिया भर के शिक्षा शास्त्री मानते रहे हैं कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा सुलभ होने की वजह से बच्चे का बौद्धिक और मानसिक विकास बेहतर होता है। इसके बावजूद भारत में मातृभाषा में शिक्षण को सिर्फ सरकारी तंत्र ही स्वीकार करता रहा, जिसका ज्यादातर हिस्सा पिछले कुछ दशकों में अपनी बदहाली के लिए ही ज्यादा जाना गया है। कुछ वर्षों में तो राज्य सरकारों में भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी को माध्यम बनाने की जैसे जड़ लग गई थी। पश्चिम बंगाल ने तीसरी से अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई की व्यवस्था शुरू की, तो उसके कई साल पहले ओडिशा ने अपने यहां प्राथमिक विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सरकार तक ने अपने यहां प्राथमिक स्तर से ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी को बनाए जाने की स्वीकारोक्ति दे दी थी।
माना जाता है कि 1937 में राज्यों के लिए होने वाले चुनावों से पहले गांधी जी ने भावी सरकारों की शिक्षा नीति को लेकर जो बुनियादी तालीम की योजना बनाई थी, उसी में पहली बार मातृभाषा में शिक्षण पर जोर दिया था। हालांकि 1883 में भारतीय शिक्षाविद के एम बनर्जी और ब्रिटिश शिक्षाविज्ञानी डाॅक्टर वैलेंटाइन ने देसी भाषाओं को भारतीय शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षण की योजना प्रस्तुत की, इसके बावजूद 1854 के वुड घोषणापत्र में अंग्रेजी के साथ ही भारतीय भाषाओं को भी यूरोपीय ज्ञान के माध्यम के तौर पर स्वीकृति दी गई। मैकाले की योजना 1860 में लागू हो गई, बाद में शिक्षा को समाज से सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। इसके बावजूद भारत में वर्नाक्यूलर विद्यालय चलते रहे।
गांधी जी का मानना था कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने से बाल और अबोध मन की काफी ऊर्जा उस भाषा को ही सीखने में खर्च हो जाती है। उन्होंने वर्धा शिक्षा योजना में माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया। 1994 में अंग्रेज सरकार जो सार्जेंट योजना लेकर आई थी, उसमें भी भारतीय भाषाओं को ही हाई स्कूल तक शिक्षा का माध्यम बनाने की बात कही गई। सैंडलर आयोग की भी वैसी ही सोच थी। 1952 में मुदलियार आयोग ने भी प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा को ही माध्यम बनाने की बात की थी। उससे पहले उच्च शिक्षा में मातृभाषा को माध्यम भाषा बनाने की बात डाॅक्टर एस राधाकृष्ण आयोग कर ही चुका था। इतनी सिफारिशों के बावजूद प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी की प्रतिष्ठा बढ़ती रही।
क्या नई शिक्षा नीति के इन सुझावों को महानगरों से लगायत गांवों के किनारे वाली सड़कों तक फेले अंग्रेजी माध्यम के कथित पब्लिक स्कूल स्वीकार कर पाएंगे? वर्ष 1993 में दिल्ली सरकार के शिक्षा और विकास मंत्री साहब सिंह वर्मा ने दिल्ली में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का फैसला लिया, तो उस संघी फैसला बताकर उसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया, जिसे देश की संभ्रातं समझी जाने वाली अंग्रेजी मीडिया का भरपूर सहयोग मिला था। वह विवाद इतना पढ़ा कि जर्मनी की यात्रा से लौटते ही तत्कालीन सीएम मदन लाल खुराना ने उस फैसले को पलट दिया था।
ल्गता है कि नई शिक्षा नीति बनाने वालों पर इस विरोध की आशंका रही है। शायद यही वजह है कि भारतीय भाषाओं की बात करने वाले अनुच्छेद के साथ ही यह भी स्पष्टीकरण दे दिया गया है कि कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी। इसके बावजूदन मोदी सरकार ने संकल्पों को देखकर उम्मीद कर सकते हैं कि मातृभाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने वाली नीति इस बार जरूर कारगर होगी।
उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
साभार अमर उजाला
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