हाल ही में जब सीबीएसई के नतीजे घोषित हुए, तो प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों का परीक्षा परिणाम बेहतर रहा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि अब सरकारी स्कूलों में पढना गौरव की बात है। इस बात पर अखबारों और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में बहस भी छिड़ गई। यह भी कहा गया कि पिछले 70 वर्षों में पहली बार ऐसा हुआ है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बहुत से गरीब बच्चों ने काफी अच्छे अंक प्राप्त किए है। दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने भी टीम एजुकेशन को बधाई दी। मौजूदा परिदृश्य में कला की दुनिया से लेकर साहित्य और विज्ञान तक में जो लोग सफल नजर आते हैं, उनमें से अधिकांश न केवल गांवों और छोटे शहरों से आए हैं, बल्कि उनमें से बहुतों ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में प्राप्त की है। पर सच यह भी है कि उन्होंने अपने बच्चों को किसी न किसी नामी निजी स्कूलों में ही पढ़ाया है।
इसकी एक वजह यह है कि पिछले चार दशकों में यह धारणा मजबूत हुई है कि सरकारी स्कूलों में चूंकि अंग्रेजी ठीक से नहीं पढ़ाई जाती, उनमें शिक्षा की गुणवत्ता ठीक नहीं हैं, फिर पानी, शौचालय आदि की सुविधाएं भी नहीं हैं। इन स्कूलों का कोई ब्रांड और स्टेटस भी नहीं है, इसलिए आगे जाकर यदि बच्चे विदेश में पढ़ना चाहें या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करना चाहें, तो क्या किया जाए? बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ तो नहीं किया जा सकता। आखिर क्या वजह है कि सरकारी स्कूलों निजी स्कूलों के सामने पिछड़ते चले गए? दरअसल, बच्चों और माता-पिता की शिक्षा व रोजगार से जुड़ी जो समस्याएं हैं, उन्हें संबोधित ही नहीं किया गया। रवैया अगर बला टालने का हो, तो सुधार भी कैसे हो?
इसके अलावा, अक्सर गांवों, कस्बों और छोटे शहरों से ऐसे खबरें भी आती रहती हैं कि कहीं स्कूल की इमारत नहीं है, इसलिए बच्चे पेड़ क नीचे पढ़ते हैं। कहीं इमारत इतनी जर्जर हालत में है कि कभी भी गिर सकती है। कहीं सौ-सौ बच्चों पर एक अध्यापक हैं भी, तो वे आते नहीं या अपनी जगह पढ़ाने के लिए किसी और को भेज देते है। जबकि इन दिनों सरकारी स्कूलों के वेतनमान बहुत अच्छे हैं। इसीलिए गांव-गांव प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं। जो लोग पैसे खर्च कर सकते हैं, वे अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में भेजते है।
इस बात पर काफी बहस हो चुकी है कि मातृभाषा में पढ़ने से बच्चे बहुत जल्दी सीखते हैं। यह तमाम शोधों से प्रमाणित भी हो चुकी है। मगर जमीनी हकीकत इसके विपरीत है। एक बार एक मशहूर पत्रकार ने राजस्थान के बच्चों और उनके माता-पिता से पूछा था कि उनकी सबसे बड़ी समस्या क्या है, तो उन्होंने कहा था कि वे पढ़ाई में चाहे जितना अच्छा करें, अंगेजी न आने के कारण शहरी बच्चों से मात खा जाते हैं। अंग्रेजी जरूरी है, इसलिए अपने यहां की बहुत सी राज्य सरकारों ने अब से प्राइमरी स्तर से ही सरकारी स्कूलों में पढ़ना शुरू कर दिया है।
दरअसल, हमलोग सरकारी स्कूलों की कमियों को ही ज्यादा देखते हैं, जबकि अनेक सरकारी स्कूलों, खासकर जवाहर नवोदय विधालयों व केंद्रीय विधालयों में पढ़ाई की गुणवत्ता बहुत स्तरीय रही है। 10वीं व 12वीं क जो अच्छे परिणाम आए हैं, उनके यह बेहतर जाहिर होता है। अच्छे सरकारी स्कूलों से अब निजी स्कूलों को भी अपनी धारणा किनारे रखकर सीखना चाहिए।
अमेरिका में सरकारी स्कूलों को पब्लिक स्कूल कहा जाता है। वहां बड़े से बड़े लोग अपने बच्चों को इन्हीं स्कूलों में पढ़ाते हैं। स्कूलों की गुणवत्ता के लिए सचेत रहते हैं। भारत से वहां गए लोग भी अपने बच्चों को इन्हीं पब्लिक स्कूलों में पढ़ाते हैं।
सीखने वाली बात है कि आखिर दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने बड़े से बड़े निजी स्कूलों को परीक्षा परिणाम के मामले में कैसे पछाड़ दिया? दिल्ली सरकार का कहना है कि अब सरकारी स्कूलों में भेजने लगे हैं, क्योंकि अब अधिकतर सरकारी विधालयों में भी निजी स्कूलों वाली सारी सुविधाएं मौजूद हैं। शिक्षक भी योग्य हैं। ऐसे में माता-पिता भारी-भरकम फीस क्यों दे? जब दिल्ली में अच्छे नतीजे मिल सकते हैं, तो बाकि राज्य सरकारें भी अपने स्कूलों को सुधारकर मिसाल बना सकती हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
लेखक - क्षमा शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)
साभार - हिन्दुस्तान
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