कमीशनखोरी से पब्लिकस्कूलों की पौ बारह

ललित भट्ट
समय के साथ-साथ शिक्षा का बाजारीकरण लगातार बढ़ता जा रहा है तथा निजी स्कूल संचालक मनमाने तरीके से फीस के नाम पर मोटी वसूली तो कर ही रहे हैं, लेकिन इन मुनाफाखोर पब्लिक स्कूल संचालकों ने अपने स्कूल के छात्र-छात्राओं के अभिभावकों से किताबें, टाई, बेल्ट तथा यूनिफार्म पर भी कमीशनखोरी का खेल खेलना शुरू कर रखा है।
प्रशासन में बैठे भ्रष्ट अफसरों का वर्दहस्त पाकर स्कूल संचालक अपनी मनमानी पर उतारू होकर अभिाभावकों के साथ खुली लूट को अंजाम दे रहे हैं। बच्चों के एडमीशन फीस के साथ-साथ स्कूलों द्वारा बच्चों के टाई, बेल्ट पांच से छह गुना अधिक दाम पर बेचने के अलावा खास दुकान से किताबें खरीदने के लिये हिदायत दी जाती है तो दूसरी ओर कुछ स्कूल दुकानदार को तयशुदा कमीशन देकर किताबें बिकवा रहे हंै। शहर में संचालित अधिकतर पब्लिक स्कूल हर साल किताबें बदल देते हैं ताकि हर साल मोटी रकम कमाई जा सके। शिक्षा के नाम पर मची इस लूट में बच्चों के अभिभावक लुट रहे हैं। जुलाई का महीना आते ही पब्लिक स्कूल संचालकों के चेहरे खुशी से फूल जाते हैं तो वहीं बच्चों के अभिभावकों के चेहरों पर चिंता की लकीरें उभरने लगती हैं। बच्चों के माता पिता को स्कूल की फीस के अलावा घर के बजट का भी ख्याल रखना होता है।
राज्यभर में चल रहे निजी स्कूल मानकों पर कितने खरे उतरते हैं यह जांच का विषय हैं अगर ईमानदारी से इन निजी स्कूलों की जांच कराई जाये तो अस्सी प्रतिशत स्कूलों में ताला पड़ जाये,लेकिन इस पुनीत कार्य करने की जिम्मेदारी जिनकी है वे निजी स्कूल संचालकों के साथ अपने ईमान का सौदा करके बैठे हुये है।
शहर के एक बुक स्टोर संचालक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि निजी स्कूलों की किताबों पर तीस से पचास प्रतिशत कमीशन मिलता है तथा 25 से 30 रूपये में मिलने वाली टाई बेल्ट स्कूलों द्वारा कई गुना अधिक दाम पर बेची जा रही है। कुल मिलाकर शिक्षा के नाम पर ऐसी लूट मची है जिसपर लगाम लगा पाना तकरीबन नामुमकिन होता जा रहा है। मोटी मोटी फीस वसूलने वाले स्कूलों के पास खेल का मैदान तक नहीं है लेकिन कागजी कार्रवाई पूरी करके स्कूल चलाने के नाम पर अभिभावकों से फीस के साथ साथ टाई, बेल्ट, यूनिफार्म तथा किताबों के नाम पर कमीषनखोरी करने का लायसेंस है। इसके अलावा स्कूल संचालकों द्वारा अन्य सुविधा जैसे साफ स्वच्छ पीने का पानी,पर्याप्त हवादार कमरे,साफ शौचालय,बिजली की पूरक व्यवस्था,लैब,लायब्रेरी के अलावा सबसे जरूरी स्कूल के टीचर्स की योग्यता। उक्त सुविधाओं के नाम पर पब्लिक स्कूलों द्वारा पैसा तो वसूला जाता है लेकिन सुविधाओं का कहीं अता पता नहीं रहता। जुलाई आने के पूर्व स्कूल संचालकों द्वारा प्रचार प्रसार में बड़े बड़े वादे सुविधाऐं देने के लिये किये जाते हैं लेकिन स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है।
सरकार स्कूल चलें अभियान पर भी करोड़ों अरबों खर्च कर रही है लेकिन सरकारी स्कूल का क्या हाल है यह किसी से छुपा नहीं है, सरकारी स्कूल के बारे में यही कहा जा सकता है कि वैज्ञानिकों द्वारा छोड़ा गया राकेट अंतरिक्ष में अपनी कक्षा में पहुंच गया है लेकिन सरकारी स्कूल का मास्टर गांव के स्कूल की कक्षा में अभी तक नहीं पहुंचा है। अगर सरकार शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिये थोड़ा सा भी संजीदा हो जाये और निजी स्कूलों पर शिकंजा कसना शुरू कर दे तो शिक्षा के स्तर में सुधार होने के साथ साथ सार्थक परिणाम भी मिल सकते हैं। सरकार अगर सरकारी स्कूलों की हालत नहीं सुधार सकती तो कम से कम निजी स्कूलों की मनमानी पर लगााम तो लगा ही सकती है ताकि निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे को शिक्षा मिल सके। सरकार भी तो यही चाहती है कि सब पढ़े फिर वे सरकारी स्कूलों में पढ़े अथवा निजी स्कूलों में। देश के विभिन्न इलाकों से घटनायें सुनने को मिल रहीं है कि अभिभावक बच्चों की फीस अदा नहीं कर सके तो बच्चों ने मौत को गले लगा लिया। ऐसी ही एक घटना प्रदेष की राजधानी भोपाल में घटी है इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? समाज और सरकार दोनों अपनी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। देष को आजाद हुये सात दसक होने हो हैं लेकिन बच्चे स्कूल की फीस के लिये अपनी जान दे रहें हैं तो समाज के लिये गंभीर चिंता विषय है।
इतनी विषमताओं के बाद भी शहर के कुछ विद्यालय शिक्षा की अलख जगाने में लगे हुये हैं लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण में ऐसे विद्यालय लगातार पिछड़ रहे हैं और कई बंद हो गये हैं, इसका सबसे बड़ा कारण है कि संचालक शिक्षा बाजार के साथ कदमताल मिलाने की कला में माहिर नहीं थे।

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