एनसीईआरटी के सर्वेक्षण के बाद सीबीएसई और आईसीएसई ने अपने स्कूलों में हंसी की कक्षाएं लगाने का निर्देश दिया है। नए सत्र से इनके स्कूलों में साप्ताहिक लाफिंग क्लास रखी जाएगी, जिसमें छात्रों को खुलकर हंसने, चुटकुले सुनाने और मिमिक्री करने का मौका मिलेगा। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के समय उनकी पत्नी ने दिल्ली के एक स्कूल में हैप्पीनेस क्लास का जायजा लिया। उन्हें बताया गया कि इन कक्षाओं में किताबों से पढ़ाई के बजाय तीन हैप्पीनेस पाठ्यक्रम अपनाए हैं ताकि बच्चे खुश रहना सीख सकें और उनका बेहतर मानसिक और शारीरिक विकास हो सके। दिल्ली के स्कूलों में खुशियों की पाठशाला की शुरुआत 2018 में दलाई लामा की पहल पर की गई थी। इसके लिए जो पाठ्यक्रम बनाया गया है उसे तीन हिस्सों में बांटां गया है। पहले हिस्से में बच्चों को मानसिक एकाग्रता की शिक्षा दी जाती है। दूसरे हिस्से में बच्चों को कहानियां सुनाई जाती है और खुद उनके कहानी सुनाने को कहा जाता है। तीसरे हिस्से में बच्चों को आसपास की दुनिया की समझ देने वाली गतिविधियां करने को कहा जाता है। चूंकि इस पाठ्यक्रम में कोई परीक्षा नहीं ली जाती है इसलिए बच्चे तनावमुक्त रहते है।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर खुशियों की ऐसी पाठशाला जरूरी क्यों हो गई है? असल में इसकी एक जरूरत वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट के आधार पर पैदा हुई। ऐसी पिछली कुछ रिपोर्ट के आधार पर पैदा हुई। ऐसी पिछली कुछ रिपोर्टों से जाहिर हुआ है कि हमारा देश खुशी के मामले में पिछड़ रहा है, जिसके नतीजे में हिंसा, मानसिक अवसाद का माहौल बन रहा है। वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2018 में भारत को 156 देशों की सूची में 133 वां स्थान मिला था, जबकि साल 2017 में वह 122 वे स्थान पर था। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की संस्था सस्टेनेबल डेवलेमेंट साॅल्यूशंस नेटवर्क तैयार करता है जो 2012 से जारी हो रही है। प्रसन्नता मापने के लिए कई ठोस कसौटियां रखी गई हैं, जिनमें प्रमुख हैं-जीडीपी, सामाजिक सहयोग, उदारता, भ्रष्टाचार का स्तर, सामाजिक स्वतंत्रता और स्वास्थ्य। रिपोर्ट का मकसद शासकों को आईना दिखाना है कि उनकी नीतियां आमजन की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा भी रही हैं या नहीं?
हैप्पीनेस इंडेक्स देखते हुए यह बात काफी विरोधाभासी लगती है कि एक तरफ दुनिया के तमाम देश और प्रमुख वित्तीय संगठन भारतीय अर्थव्यवस्था की तरक्की को स्वीकार कर रहे है और दूसरी ओर प्रसन्नता के मामले में भारत छोटे, अविकसित देशों से भी पीछे है। इससे ऐसा लगता है कि पिछले दो-ढ़ाई दशकों में भारत में विकास प्रक्रिया भले ही तेजी से आगे बढ़ी हो, पर उसका फायदा सबको नहीं मिल रहा है, लेकिन क्या खुशी का पैसे से कोई रिश्ता है? हैप्पीनेस इंडेक्स में फिनलैंड और नाॅर्वे जैसे अमीर देशो के अव्वल आने का तो यही अर्थ निकलता है कि खुशी संपन्नता से खरीदी जा सकती है। हालांकि यह भी एक स्थापित धारण है कि खुशियां पैसे से नहीं खरीदी जा सकती, लेकिन कुछ शेष इस धारणा को गलत साबित करते है।
बहरहाल हैप्पीनेस के लिए कुछ देशों में काॅलेज स्तर पर पाठ्यक्रम चलाए जा रहे है तो कहीं बकायदा मंत्रालय खोले जा रहे है। जैसे भूटान, वेजेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात में हैप्पीनेस डिपार्टमेंट या फिर मंत्रालय है, जिनका मुख्य उद्देश्य आम लोगों की जिंदगी मंे खुशी सुनिश्चि करना है। मध्य प्रदेश में भी 2017 में हैप्पीनेस मंत्रालय बना था तो इस विभाग के अधिकारियों ने सबसे पहले भूटान की दौड़ लगाई, ताकि वे भूटानी खुशी के माॅडल को समझ सकें। मध्य प्रदेश की देखादेखी आंध्र प्रदेश में भी हैप्पीनेस डिपार्टमेंट शुरू किया गया। यह तय है कि मौजूदा माहैाल में ऐसे प्रयास आगे भी देखने को मिलेंगे, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उठता रहेगा कि क्या जनता के जीवन में खुशी लाना सरकारों का काम है? उन्हें तो जीवन स्तर उठाकर लोगों की जिंदगी बेहतर बनानी चाहिए, खुशी तो उसके आगे-पीछे अपने आप चली आएगी।
लेखक- अभिषेक कुमार सिंह
साभार- जागरण
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