बांस पुस्तकालय से सीख रहे हैं आदिवासी बच्चे

मैं मूलतः केरल का रहने वाला हूं। आयकर विभाग में नौकरी लगने के बाद मैं मुंबई में रहने लगा। कुद साल नौकरी करने के बाद मैंने एक दिन विवेकानंद केंद्रीय विधालय का विज्ञापन देखा, जो स्कूल आंदोलन के माध्यम से तब पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें फेलाना शुरू कर रहा था। तभी मेरे मन में दुर्गम इलाकों में शिक्षा का प्रसार करने का ख्याल आय। बस फिर क्या था, इसके बाद मैंने आयकर विभाग की नौकरी छोड़ दी और अरुणाचल प्रदेश के लोहित में विवेकानंद केंद्रीय विधालय के लिए बतौर शिक्षा अधिकारी काम करने लगा। मैं वहां काम तो कर रहा था, पर स्कूल प्रणाली में व्याप्त कठिन शिक्षण विधियों से तंग आकर मैंने औपचारिक श्ज्ञिक्षा की सीमाओं से बाहर निकलने का फैसला किया। मैंने महसूस किया कि बच्चों की पढ़ने की आदतों को प्रोत्साहित करने और उन्हें कल्पना शक्ति की खोज करने की अनुमति देने की आवश्यकता है। अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम इलाकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए मैं पैदल ही घर-घर जाकर लोगों के बीच किताबें बांटने लगा, ताकि वहां के आदिवासी बच्चे पढ़ने के प्रति आकर्षित हो सके।
2007 में तेजू शहर के बच्चों के लिए पहली लाइब्रेरी बनी। बांस से बने होने के कारण इसका नाम बांस पुस्तकालय रखा गया। अब तक मैंने तेरह ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना की हैं, जिनमें दस हजार से अधिक पुस्तकें हैं।
लेखक- सत्यनारायण मुंदेयूर, पदमश्री सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता
साभार अमर उजाला

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