चमक खोती इंजीनियरिंग


महाराष्ट्र में गत वर्ष 89,000 छात्रों ने  इंजीनियरिंग काॅलेजों में दाखिला लिया था। इस वर्ष यह संख्या घटकर 79,000 रह गई हैं। छात्रों को इंजीनियरिंग का करियर पसंद नहीं आ रहा है। आन्ध्र प्रदेश में परिस्थिति ज्यादा ही खराब है। देश में सर्वाधिक इंजीनियरिंग काॅलेज इस राज्य में है। इनमें अनेक के मालिक आज काॅलेजों की बिक्री करने को मजबूर हैं। उन्होंने पिछले दशक में 300-500 करोड की लागत से काॅलेज स्थापित किए थे। इन्हें आशा थी कि बडी संख्या में छात्र प्रवेश लेंगे, ऊंची फीस अदा करेंगे और ये लाभ कमा सकेंगे, परन्तु छात्रों नें दाखिला लेना कम कर दिया हैं। ये काॅलेज इनके लिए सफेद हाथी साबित हो रहे हैं, जिन्हें वे 100 करोड के औने-पौने दाम पर बेचने को तैयार हैं।
    इंजीनियरिंग स्नातकों की इस दुरूह स्थिति के दो कारण हैं। एक यह कि बाजार में इनकी डिमांड कम है और दूसरा, इनकी गुणवत्ता हल्की है। छात्रों को गणित और अंग्रेजी में पर्याप्त महारथ हासिल नहीं हैं। कंपनियों का कहना है कि उन्हें गुणवत्तावान आवेदक नहीं मिल रहें हैं। इन दोनों कारणो के परस्पर संबंध को दूसरे देशो के अनुभव से समझा जा सकता है। अमेरिका में एच1बी वीजा को लेकर भारी विवाद चल रहा हैं। अमेरिकी कंपनियों का कहना है कि उन्हें अमेरिकी नागरिकों में गुणवत्तावान आवेदक नहीं मिल रहें है। उनकी मांग है कि सरकार को विदेशी इंजीनियरों के आगमन को सरल बनाने के लिए एच1बी वीजा अधिक संख्या में जारी करना चाहिए। ऐसा वक्तव्य क्वालकाॅम नामक दूरसंचार कंपनी के द्वारा कुछ समय पूर्व दिया गया था, परन्तु इस वक्तव्य को देने के कुछ ही सप्ताह कें बाद क्वालकाॅम नें 5000 श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया। इससे प्रमाणित होता है कि क्वालकाॅम को नए इंजीनियरों की भर्ती की जरूरत ही नहीं थी। गुणवत्तावान आवेदकों की अनुपलब्धता को महज इसलिए कहा जा रहा था कि कंपनी को सस्ते विदेशी श्रमिक उपलब्ध हो जाएं। इसी प्रकार एटलांटिक पत्रिका में छपे एक लेख में कहा गया है कि किसी को भी इस बात के प्रमाण नहीं मिले है कि साइंस अथवा इंजीनियरिंग श्रमिक उपलब्ध नहीं हैं। यदि वास्तव में श्रमिक उपलब्ध न होते तो कंपनियां श्रमिकों को ऊंचे वेतन देने की पेशकश करती। इन उदाहरणों से संकेत मिलते है कि कंपनियों को सस्ते श्रमिक चाहिए। गुणवत्ता के विषय को अनायास ही उठाया जाता हैं। सच यह है कि अमेरिका में इंजीनियरों की पर्याप्त सप्लाई उपलब्ध हैं, परन्तु ये आवेदक ऊंचे वेतन मांगते हैं। फिर भी कंपनियां इनकी अनुपलब्ध्ता की गुहार लगाती हैं और यह प्रदर्शित करती है कि उनकी सप्लाई अपर्याप्त हैं।
    बाजार मे हर मांग की डिमांड और सप्लाई के बीच घनिष्ट संबंध होता है। जैसे बादाम के बाजार को ही ले लें। मान लिजिए बादाम की डिमांड अधिक हो गई। खरीदार ज्यादा आ गए। बाजार में बादाम के दाम 800 से बढकर 1200 प्रति किलो हो गए। किसानों को संदेश मिला कि कटहल की तुलना में बादाम के वृक्ष लगाना ज्यादा लगाएं। कुछ बर्षो में बाजार में बादाम की सप्लाई बढ गई और मुल्य 1000 रूपये के नए संतुलन मूल्य पर आ गए। इसी प्रकार मान लिजिए  सरकार नंे बादामों के आयात को खोल दिया। बाजार मे बादाम के दाम गिरकर 400 रूपये प्रति किलो हो गए। तब उपभोक्ता नें मंूगॅफली के स्थान पर बादाम का सेवन शुरू कर दिया। बादाम की मांग बढ गई। मांग बढने से दाम बढने से दाम बढनें लगे और 600 रूपये के नए संतुलन मूल्य पर आकर टिक गए। विशेष यह कि दोनों ही परिस्थिति में उपभोक्ता गुणवत्ता की शिकायत करता रहता है। बादाम के दाम 1200 रूपये हो गए तो उपभाक्ता कहता है कि दाम के सामने क्वालिटी कमजारे हो है। दाम 400 रूपये हो गए तो कहता है कि बादाम से तेल निकाल लिया गया है। मूल विषय गुणवत्ता का नहीं, बल्कि डिमांड का है। डिमांड ज्यादा होती है तो दाम बढते है और सप्लाई कम हो जाती है। अतः डिमांड जानने का सीधा उपाय है कि दाम पर दृष्टि डालें। बादम की डिमांड अधिक हुई तो दाम 800 रूपये से बढकर 1200 रूपये हो जाएगे। डिमांड कम हुई तो दाम 400 रूपये हो जाएगे। इस उतार चढाव में गुणवत्ता महत्पूर्ण नहीं हैं। माल में सदा ही कुछ अच्छी गुणवत्ता और कुछ कम गुणवता का होता है, जैसे आज बाजार में अच्छा बादाम 1500 रूपये मे और घटिया बादाम 500 रूपये में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार अच्छे स्नातक इंजीनयर का वेतन आज एक लाख रूपये प्रतिमाह है, जबकि घटिया इंजीनियर 8000 रूपये प्रतिमाह पर उपलब्ध हैं।
    वर्तमान में इंजीनियर स्नातकों की डिमांड को समझने के लिए देखना होगा कि उनके औसत वेतन में वृद्धि हो रहीं है अथवा गिरावट आ रहीं है। औसत वेतन में वृद्धि हो तो मानेंगे कि डिमांड अधिक है। औसत वेतन में कमी दिखे तो मानेंगे कि डिमांड कम है। प्रत्यक्ष अनुभव बताता है कि आज इंजीनियरिंग स्नातकों के औसत वेतन में  गिरावट आ रहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि मूल समस्या डिमांड की कमी है। अर्थव्यवस्था के गतिमान होने के कारण उद्यमियों को इंजीनियरों की जरूरत कम पड रहीं है। यदि डिमंाड अधिक होती और गुणवत्ता की समस्या होती तो इंजीनियरों के वेतन में उछाल दिखता। साथ-साथ गुणवत्ता की समस्या भी हैं। आज इंजीनिरिंग काॅलेजो द्वारा अध्यापको को उचित वेतन नहीं दिए जा रहें हैं तथा काॅलेज में वर्कशाप और लैब नहीं है, क्योंकि छात्रों को आकर्षित करने के लिए उन्हें फीस न्यून रखनी पड रहीं है। डिमांड अधिक होती तो छात्रों की संख्या अधिक होती तो, फीस भी बढती और काॅलेजो द्वारा अच्छे अध्यापकों को नियुक्त किया जा सकता था।
    इस परिस्थिति में सरकार को डिमांड एंव सप्लाई, दोनांे तरफ कदम उठाना पडेगा। अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने होंगे। इससे इंजीनियरों की डिमांड बढेगी, उनके वेतन बढेगें और काॅलेजों में दाखिलें बढेगे। दूसरी तरफ सरकार को स्नातकों की गुणवत्ता में सुधार लाना होगा। तमाम काॅलेजों में वर्कशाप और लैब नहीं हैं। छात्रों को केवल थ्योरी पढाई जाती हैं। उन्हें व्यावहारिक ज्ञान देना चाहिए। तब उद्योगों द्वारा उन्हें अधिक संख्या में तमाम कार्यो में लगाया जाएगा, जैसे फोरमैन के कार्य में अथवा मशीन के आपरेटर के रूप में। जिस प्रकार दाम घटने से मंूगफली के स्थान पर बादाम की खपत की जाती हैं उसी प्रकार इंजीनियरों को फिटर और फोरमैन के स्थान पर नियुक्त किया जाएगा। ऐसे मे इंजीनियरों को रोजगारों मिलेगा चाहे वेतन कम ही हो, लेकिन गुणवत्ता में सुधार से इंजीनियरों के वेतन बढेंगे इसमें संशय है, क्योंकि गुणवत्ता में सुधार से डिमांड नहीं बढती हैं।
                        लेखक- डाॅ. भरत झुनझुनवाला
                        साभार- दैनिक जागरण

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