कोरोना जनित आपदा ने करीब-करीब पूरी दुनिया के मूल चरित्र प्रभावित किया है। समाज सम्मिलत, संवाद एवं गति से बनता है। कोरोना संकट ने इस समिमलत एवं संवाद की मूल सामाजिक प्रवृत्ति पर ही रोक लगा दी है। 21वीं सदी की सर्वधिक बड़ी घटना भूमंडलीकरण सम्मिलत, संवाद एवं गति को तीव्र करने की प्रवृत्ति को उलटा कर हमें थम जाने को बाध्य कर किया ळै। आज समाज की सहज गति में अचानक ब्रेक लग गया है। देखा जाए तो कोरोना जनित इस प्रवृत्ति ने हमारी आधुनिकता के अर्थशास्त्र को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। इसने उद्योग, बाजार एवं शिक्षा, तीन बड़े सेक्टरों को गहरा आघात दिया है। शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा जो सम्मिलन एवं संवाद पर आधारित थी, को कुछ समय के लिए सही, ध्वस्त सा कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो कोरोना रोधी टीका आने तक यही स्थिति रहेगी। कोरोना कहर से पैदा हुआ भय, अनिश्चितता, बेचैनी और नए सामाजिक परिवर्तन कोरोना के बाद भी हमारे समय को प्रभावित करते रहेंगे, जिसे उत्तर कोरोना समय कहा जा सकता है।
उच्च शिक्षा पूरी दुनिया और खासकर पश्चिमी देशों को अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण सहयोग करती रही है। अमेरिका में कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने 1912 से 1917 तक न्यूयाॅर्क राज्य की अर्थव्यवस्था में 5780 लाख डाॅलर का इजाफा किया और वह लगभग 20000 लोगों के रोजगार का साधन रही। इसी तहर प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी अमेरिका के न्यूजर्सी राज्य की अर्थव्यवस्था में प्रतिवर्ष 1.58 अरब डाॅलर का योगदान करती है। उसने हजारों लोगों को नौकरी भी दे रखी है। इसी प्रकार इंग्लैण्ड की अर्थव्यवस्था में उसकी विश्वविधालय लगभग 95 अरब डाॅलर का योगदान करते हैं जो पूरे देश के जीडीपी के 1.2 प्रतिशत के बराबर है। यह आर्थिक आमद इन विश्वविधालय को मूलतः फीस एवं दान से प्राप्त होती है। फीस की राशि को एक बडा भाग अंतरराष्ट्रीय छात्रों से प्राप्त होता है जिनमें चीन, भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों के छात्रों की एक बड़ी संख्या होती है। ये छात्र वहां की शिक्षा की गुणवत्ता, वहां के प्रवास के दौरान मिलने वाले अनुभव के साथ-साथ उनके ब्रांड से प्रभावित होकर वहां अध्ययन के लिए जाते है।
कोरोना संकट के चलते दुनिया के बड़े विश्वविधालय अब आॅनलाइन शिक्षण को आॅन कैंपस, क्लासरूम टीचिंग के विकल्प के रूप में विकसित करने में लगे हुए है। प्रश्न उठता है कि क्या क्लासरूम टीचिंग एवं आॅन कैंपस के अभाव में इन विश्वविधालयों का ब्रांड प्रभावित होगा? इसका उत्तर शायद हां में होगा। आॅनलाइन शिक्षण, ओपन शिक्षा के माध्यम से ये विश्वविधालय सस्ती, किंतु ज्यादा छात्रों को अपने से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहें है। हालांकि आॅन कैंपस फीस की तुलना में इसकी फीस से भी वंचित रहेंगे। ऐसे में इन्हें आर्थिक चोट तो झेलनी ही होगी। बदले माहौल में यह भी माना जा रहा है कि एशियाई देशों के छात्र अब यूरोप और अमेरिका पढ़ने जाने से कतराएंगे। कोरोना के कहर ने ऐसी स्थिति पैदा की है कि छात्र ज्यादा दूर जाकर शिक्षा ग्रहण करने में एक असुरक्षा बोध महसूस करेंगे। मौजूदा महौल में उन्हें ऐसे शिक्षा केंद्र एवं समाज चाहिए जहां वे सुरक्षित महसूस करें और जहां उन्हें किसी तरह की उपेक्षा का सामना न करना पड़े। ऐसे में भारत को इसका लाभ उठाना चाहिए। यह सुखद है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत की उच्च शिक्षा को इन नई चुनौतियों एवं संभावनाओं के लिए तैयार कर रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक उच्च शिक्षा के आॅनलाइन शिक्षण एवं संवाद विकसित करने पर लगातार जोर दे रहे है। यह दूसरे महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों की कैंपस लाइफ, वहां के महौल, आवास व्यवस्था आदि को लेकर भी सक्रिय दिख रहे हैं।
भारत में उच्च शिक्षा के तीन माॅडल महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए आकर्षक बनाया जा सकता है। एक तो आइआइटी-आइआइएम माॅडल, दूसरा जेएनयू, बीएचयू, आवासीय विश्वविधालयों का माॅडल, तीसरा अशोक यूनिवर्सिटी, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, शिव नादर यूनिवर्सिटी जैसे निजी विश्वविधालयों का माॅडल। अनेक राजनीतिक टकरावों के बावजूद जेएनयू बीएचयू जैसे प्रमुख विश्वविधालय तमाम अंतरराष्ट्रीय छात्रों को अपनी ओर खींच सकते है। ऐसे शिक्षा संस्थानों को उत्कृष्ट शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित करने की दिशा में और प्रयास किए जाने चाहिए। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने हाल में जो नए केंद्रीय विश्वविधालय खोले है उन्हें भी अंतरराष्ट्रीय छात्रों के आकर्षण का केंद्र बनाया जाना चाहिए।
अगर केंद्र सरकार एवं विश्वविधालय अनुदान आयोग देश के तमाम विश्वविधालयों को आॅनलाइन, वर्चुअल, ओपन शिक्षा देने की क्षमता से लैस कर देते है तो भारतीय उच्च शिक्षा कोरोना संकट का बेहतर ढंग से मुकाबला कर सकती है। यदि हम उत्कृष्ट कोटि की आॅनलाइन शिक्षा का प्रयास कर पाते है तो इससे हमारे देश के गरीब, उपेक्षित एवं दूरस्थ क्षेत्रों में बंसे छात्रों को भी बहुत फायदा होगा, लेकिन इसके लिए हमें दलित, पिछडे और अन्य निर्बल सामाजिक समूहों को डिजिटली साक्षर करना होगा। स्पष्ट है कि सबसे पहले उन्हें इंटरनेट मुहैया करना होगा। कहते है कि संकट के दौर में विवेक एवं सामथ्र्य जग जाता है। इस संकट ने हमें यह भी सुझाया है कि हम अपने पाठ्यक्रमों का भी नई चुनौतियों के संदर्भ में मूल्यांकन कर उनमें जरूरी बदलाव करें। ब्लैक डेथ महामारी के बाद दुनिया के नामी विश्वविधालयों में ऐसे बदलाव किए गए थे।
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