एक ओर हम डिजीटलीकरण की दुनिया में जी रहे हैं, लेकिन कुछ चीजों में पुरानी तरह कार्य हो रहा है। अब निजी स्कूलों को ही ले लीजिए। यहां आज भी हर साल बच्चे के बस्ते का बोझ स्कूल अपने अनुसार बढ़ाते हैं। महंगी किताबों के भरे इन बस्तों के बोझ तले आज भी बच्चे दब रहें हैं। हैरत की बात यह है कि शिक्षा विभाग की कार्रवाई के बाद भी निजी स्कूलों की यह मनमानी हर साल बढ़ती जा रही है। शिक्षा विभाग को हर साल की जाने शिकायतों में अभिभावकों की यह भी मांग रहती है कि बच्चों की पढ़ाई को भी डिजीटल तौर पर किया जाए, जिससे बच्चों में बस्ते का बोझ कम से कम हो। लेकिन बस्ते के बोझ तले दबा बचपन आज मानसिक तनाव से ग्रसित हो रहा हे। इससे बच्चों पर असर पड़ रहा है। अखिर बच्चों की पीठ पर इतना बोझ क्यों लाद दिया गया है। असल में शिक्षा नीति की ओर सरकारों ने कभी भी संजीदगी से ध्यान ही नहीं दिया। नतीजतन बच्चे बस्ते का बोझ ढोने को मजबूर हैं। यदि हमें बचपन संवारना है, तो सबसे पहले हमें उस शिक्षा नीति को बदलना होगा। शिक्षा को जो व्यवसायीकरण इन दिनों हो रहा है, उसे भी रोकना होगा। बच्चों को स्कूल में इतना गृहकार्य दिया जाता है कि वे जल्द ही तनाव में आ जाते हैं, इसे भी दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए। वर्तमान में डिजीटल पढ़ाई का जहां निजी स्कूल समर्थन करते हैं, लेकिन हर साल स्कूल खुलते ही महंगी किताबें मंगाकर और बस्ते का बोझ बढ़ाकर स्कूलों की यह मनमानी कम नहीं होती।
- केएन डोभाल, देहरादून
- साभार जागरण
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