वहां मौजूद 20 में से 18 शिक्षकों की राय थी कि शारीरिक दंड बच्चों को सीखाने के लिए अनिवार्य है। उनमें से एक शिक्षक नें तो इसे समान अनुभूति रखने वाले दंड के तौर पर पेश किया। यह विचार-विमर्श हम इसलिए कर रहें थे, ताकि जान सकें कि बच्चों को शारीरिक दंड देना सरकार द्वारा गैर-कानूनी बताए जाने के बाद तस्वीर कितनी बदली है? मौजूद शिक्षकों में से ज्यादातर का मानना था कि यह रोक स्कूलों में सीखने के माहौल को बेहतर बनाने की राह में रूकावट हैं। क्या वाकई ऐसा हैं..?
इस विमर्श के आयोजको ने शारीरिक दंड के खिलाफ कई तर्क पेश किए। बच्चों के मन पर पडने वाले उसके असर से लेकर नैतिकता तक की दुहाई दी गई। कई शोधों के हवाले से यह भी बताया गया कि कैसे शारीरिक दंड बच्चो में सीखने की प्रवृति को नुकसान पहुंचाते हैं। और यह भी कहा कि अगर वाकई ये तरीका कारगर है, तो क्यों न शिक्षकों के मामले में भी इसे अमल में लाया जाए? आखिर कई शिक्षक अनुशासनहीन होते है और बच्चों पर पर्याप्त ध्यान भी नहीं देते। बहरहाल, शिक्षको की यह धारणा आज की हकीकत हैं। यह आज भी इसलिए नहीं बनी हुई हैं कि शिक्षक खुद बेपरवाह है, बल्कि इसलिए कि जिन जटिल परिस्थितियों में हमारे शिक्षक जूझते है, उनसे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें इन्हीं पूर्वाग्रहों में दिखता है।
इसी तरह की दो और धारणाएं हमारी शिक्षा-व्यवस्था से लिपटी हुई है। इसमें एक धारणा शिक्षकों की इसी सोच से जुडी है कि कुछ बच्चे स्वाभाविक तौर पर बुद्विमान होते हैं, और कुछ मंद। कई बार शिक्षक मुझे अपनी कक्षाओं में ले गए, ताकि यह दिखा सकें कि उनके छात्र कितने अच्छे है। मगर जब कोई बच्चा मेरे सवाल का उचित जवाब नहीं दे पाता है, तब शिक्षक महोदय मेरी तरफ मुखातिब होकर पूरी कक्षा के सामने यह बोल उठते है कि यह बच्चा बेवकूफ है। शिक्षकों की यह धारणा भी अनुभवों और सिद्धांतो की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। सच यह है कि तमाम बच्चे सीखे सकते है, बस उन्हें सीखानें की गति और तरीका सही होना चाहिए। अगर कोई बच्चा नहीं समझ रहा है, तो यह उसकी गलती नहीं, बल्कि उसके शैक्षिणिक माहौल की कमी हैं। इसी तरह, शिक्षकों में तीसरी धारणा यह है कि ’गरीब’ होने की वजह से बच्चों में सीखने की ललक कम होती है। बेशक धनी परिवारों की तुलना में सामाजिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चों को बेहतर शैक्षिणिक माहौल नहीं मिल पाता, मगर इसके लिए बच्चों को जिम्मेदार ठहराना गलत है। यह भी एक तरह की अमानवीय सजा ही हैं।
जिन तीन धारणाओं की चर्चा ऊपर की गई है, उनकी गिरफ्त में सिर्फ शिक्षक ही नहीं है, बल्कि इसकी जंजीर हमारा पूरा समाज जकडा हुआ है। चूंकि शिक्षकों के पेशेवर आचरण को ये धारणाएं प्रभावित करती है, लिहाजा इनसे योजनाबद्ध तरीके से निपटने की जरूरत हैं।
लेखक -अनुराग बहर (सीईओ, अजीज प्रेमजी फाउंडेशन)
साभार - दैनिक हिन्दी हिन्दुस्तान
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