विश्वविधालय कोई भी हो, फीस वृद्धि का विरोध हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि सस्ती शिक्षा का न उपलब्ध होना एक बड़ी समस्या है, जिस पर बहुत गंभीरता से चर्चा करने की आवश्यकता है।
एनएसओ ने हाल ही में 2017-18 में किए गए अखिल भारतीय सर्वेक्षण के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की है। सर्वेक्षण से पता चलता है, 15 वर्ष से अधिक आयु के केवल 10.6 प्रतिशत लोगो ने सफलापूर्वक स्नातक की डिग्री पूरी की है। यह अनुपात ग्रामीण भारत में केवल 5.7 प्रतिशत है। महिलाओं में 8.3 प्रतिशत है। 2011 की जनगणना के अनुसार, समान आयु वर्ग के स्नातकों का अनुपात 8.2 प्रतिशत था। चूंकी शिक्षा प्राप्त करने वालों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में जाना संभव नहीं हैं। एक और एनएसओ सर्वेक्षण, 2017-18 आवाधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) हालांकि इसके लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
पीएलएफएस डाटा इस बात की पुष्टि करता है कि सामाजिक और आर्थिक विभेद, शैक्षिक असमानताओं को बनाए रखते है। सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में स्नातक और उच्चतर डिग्रीधारियों की संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत कम है।
मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति (एससी) के हिंदुओं की तुलना से अधिक खराब है। शिक्षा क्षेत्र में पिछडे और वंचित वर्ग धीरे-धीरे आगे आ तो रहे है, लेकिन दशकों से जो सामाजिक खाई बनी हुई है, उसे भरने में अभी काफी वक्त लग सकता है। जब आम लोगो तक शिक्षा की पहुंच की बात होती है, तो एक लैंगिक अंतर भी साफ नजर आता है। भारतीय समाज में लडकियों व महिलाओं को शिक्षा हासिल करने में अभी भी बड़ी बाधाओं का समाना करना पड़ रहा है। आर्थिक स्थिति के अनुसार, शिक्षा का एक समान स्तर देखा जा सकता है। प्रति व्यक्ति मासिक उपभोक्ता व्यय को अगर देखे, तो आर्थिक हैसियत और शिखा प्राप्ति के बीच मजबूत संबंध दिख जाता है। शिक्षा संबंधी तमाम आंकडे सामाजिक और धार्मिक समूहों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देते है।
शिक्षा पर एनएसओ की रिपोर्ट हमे देश में शिक्षा की औसत लागत के बारे में भी बताती है। एक सरकारी संस्थान में एक स्नातक पाठ्यक्रम पर औसत वार्षिक व्यय 10501 रुपये था और एक बिना मान्यता प्राप्त निजी संस्थान में लगभग काॅलेज में तकनीकी पाठ्यक्रमों में स्नातक की डिग्री का खर्च 36180 रुपये था, जबकि निजी गैर-लाभकारी संस्थानों में 72712 रुपये था।
इसे पीएलएफएस (2017-18) से उपलब्ध आय के आंकडों के साथ देखा जाना चाहिए। 45 प्रतिशत नियमित श्रमिकों ने, 60 प्रतिशत स्वरोजगार करने वालों ने और लगभग सभी आकस्मिक श्रमिकों ने प्रतिमाह 1000 रुपये से कम कमाया है। कुल मिलाकर, लगभग 67 प्रतिशत भारतीय श्रमिकों ने एक वर्ष में 120000 रुपये से कम कमाया हैं। इतनी कम कमाई बड़ें परिवारों में सबकी शिक्षा प्राप्ति में बाधा बन रही है। समय के साथ शिक्षा पाना मुश्किल होता जा रहा है। शिक्षा महंगी होती जा रही है। भारत में आबादी का एक बड़ा हिस्सा महंगी शिक्षा से आतंकित है।
कई विश्वविधालय में शुल्क को जब बढ़ायाा जाता है, तब गरीब विधार्थियों के बारे में सोचा नहीं जाता है। यह जरूरी है कि शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चिता करने के लिए उसे सस्ता रखा जाए।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत ऐसे गरीब लोगों की संख्या वाला देश बना हुआ है, जो महंगी शिक्षा नहीं ले सकते । शिक्षा खर्च पर एनएसएस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि 35 वर्ष की आयु में 15 प्रतिशत पुरुषों और 14 प्रतिशत महिलाओं ने आर्थिक तंगहाली के कारण किसी शैक्षिक संस्थान में कभी दाखिला नहीं लिया था। पांच प्रतिशत महिलाओं ने कभी दाखिला नहीं लिया, क्योंकि उनके परिवार-समाज में इसकी परंपरा ही नही थी।
ऐसे लोग जो कभी उच्च शिक्षण संस्थान में नामांकित हुए थे, लेकिन सर्वेक्षण के समय काॅलेज या संस्थान में पढ़ने नही जा रहे थे, उनमें से 24 प्रतिशत पुरुषों और 18 प्रतिशत महिलाओं ने आर्थिक बाधा का हवाला दिया। 13 प्रतिशत महिलाओं ने शादि को पढ़ाई छोडने का करण बताया। भारत में स्नातक डिग्री का क्या मतलब है। यदि हम कार्यबल में स्नातकों की मौजूदगी देखें तो 62 प्रतिशत स्नातक नियमित रोजगार में थे।
भारत में स्नातक डिग्री का क्या मतलब हैै? यदि हम कार्यबल में स्नातकों की संख्या को देखते है, तो 2017-18 में 62 प्रतिशत स्नातक निथमित नौकरियां में थे। वेतनभोगी वर्ग में देखे तो स्नातक की उिग्री वाले श्रमिक की औसत मजदूरी एक नियमित श्रकिम की मजदूरी से 1.6 गुना ज्यादा थी।
गुण्वत्ता वाली शिक्षा बेहतर नौकरी की संभावनाओं को बढ़ाती है, हमें ज्यादा मजदूरी की ओर ले जाती है। गुणवत्त पूर्ण शिक्षा समाज में आगे बढ़ने-बढ़ाने में सहायक होती है। छात्रों द्वारा की जाने वाली बेहतर शिक्षा की मांग हर नजरिये से सही है।
(लेखक ओपी जिंदल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
साभार -हिन्दुस्तान
Comments (0)