स्कूली शिक्षा के भारी पाठ्यक्रम के चलते बच्चों के सहज मनोभाव गायब होने लगे हैं। आज की शिक्षा.व्यवस्था को बच्चों की चिंता भले होए लेकिन पाठ्यक्रम से जुड़ी उनकी भावनाएं शिक्षा.व्यवस्था का हिस्सा नहीं है। आज कक्षाए पाठ्यक्रमए होमवर्कए परीक्षा और उसका तनाव हैए साथ हीए मां.बाप की अपेक्षाएं भी हैंए लेकिन क्या कभी सोचा है कि यह संपूर्ण शिक्षा का ढ़ांचा जिनके लिए बना हैए उनके मनोभावों की उसमें क्या जगह है,
यही वजह है कि आज शिक्षा में बच्चे की अपनी सोच दब जा रही है और केवल तोता रटंत शिक्षा विकसित हो रही है। इसका परिणाम यह है कि बच्चों के व्यक्तित्व में अनेक विसंगतियां दिखने लगी हैं। आज चहुंमुखी वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा का दौर है। बच्चों के पाठ्यक्रम में उनके मनोभावों के अनुरूप बदलाव करने की जरूरत है। बच्चों की चिंताए निराशाए विरोधए तनाव और शैक्षिक उदासीनता जैसे ज्वलंत विषयों पर गौर करना चाहिए।
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविधालय में 1998 से लेकर 2019 तक के शिक्षा व बाल मनोविज्ञान से जुड़े 160 शोध अध्ययनों के विश्लेषण के साथ.साथ 27 देशों के 42 हजार छात्रों पर एक शोध हुआ है। इस शोध के निष्कर्ष वहां के साइकोलाॅजिकल बुलेटिन में प्रकाशित हुए हैं। जिन छात्रों ने अपने मनोभावों अर्थात मन में उपजती चिंताए तनाव व निराशा इत्यादि को समझकर और उनका प्रबंधन करते हुए तनावमुक्त पढ़ाई.लिखाई की हैए वे बेहतर शैक्षिक परिणाम देने में कामयाब रहे हैं। इसके उलट जिन छात्रों ने अपने शैक्षिक कार्य के दौरान अपनी भावनाओं को न तो काबू कियाए न ही उनका प्रबंधन कियाए वे छात्र अपने शैक्षिक प्रदर्शन में कमतर रह गए। शोध में स्पष्ट किया गया है कि शिक्षा में अकादमिक सफलता के लिए मनोभावी बुद्धि एक बहुत अहम लक्षण है। इसका अर्थ है कि काम का परिणाम देने के समय हमें चारों ओर से घेरने वाले अपने मनोभावों को काबू करना था उनका प्रबंधन करना आना चाहिए। जिन छात्रों का मनोभावों से जुड़ा बौद्धिक स्तर उच्च रहाए वे अपने अध्ययन में अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रहे। इतना ही नहींए ऐसे छात्र अपने नकारात्मक मनोभावों को काबू करने में काफी हद तक कामयाब रहे।
आज अंग्रेजी शैक्षिक ढ़ांचे के ग्लैमर मां.बाप और बच्चे उलझ गए है। वे भूल हैं कि किताबी दुनिया से अलग बच्चों की भावनाओं की एक सतंरगी दुनिया भी होती है। भारतीय शिक्षा पद्धति से जुड़े विद्या भारती के स्कूलों को छोड़ देंए तो आज का छात्र अनौपचारिक पढ़ाई के पांच चरणों. प्री नर्सरीए नर्सरीए केजीए एलकेजी और यूकेजी जैसे स्तरों से जूझ रहा है। देखा जाए तो अनौपचारिक शिक्षा का यह प्रतिमान पश्चिम से चलकर भारत आया है। सच यह है कि प्री.नर्सरी से यूकेजी तक की शिक्षा का यह प्रतिमान एक तरह से बच्चे को परिवार द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का स्ािानापन्न ही है।
परिवार में घटते बुजुर्ग और अभिभावकों की व्यस्तता ने बच्चों को अकेला कर दिया है। उनके मनोभावों को ठीक से समझा नहीं जा रहा है और इसक फायदा अंग्रेजी शिक्षा ने खूब उठाया है। चिंताजनक सच्चाई है कि आज एकल परिवारों में कोई बड़ा.बूढा न होने से बच्चों को शुरुआती जिंदगी का ज्ञान नहीं मिल रहा हैए इससे उन्हें समस्याएं होने लगी हैं। आज स्कूल फीस के रूप में भारी कीमत वसूलने के लिए तत्पर हैंए लेकिन भावनात्मक स्तर पर ये स्कूल असफल रहे है। प्री.स्कूल दंभ के साथ बच्चों को लोकाचार सिखाने के जो दावे करते हैए वे सच नहीं है। इन शिक्षण संस्थानों के कारण भी सामाजिकिता कमजोर पड़ रही है। आज भविष्य की वैश्विक जरूरतों और वर्तमान की प्रतिस्पद्र्धा को ध्याान में रखते हुए बाल मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी है। आज वक्त की जरूरत है कि बच्चों को सामाजीकरण की प्रक्रिया में लाया जाए और यह काम मां.बाप व अभिभावक करें।
बच्चों से संवाद बनाकर उसे अपने वात्सल्य का आवरण प्रदान करें। आधुनिक डे.बोर्डिंग अथवा प्री.स्कूल हमारी कामकाजी जिंदगी में सुरक्षा कवच तो हो सकते हैंए मगर ये नैसिर्गिक मां.बाप व घर के भावनात्मक माहौल की जगह नहीं ले सकते। आज अभिभावकों के साथ.साथ बाल शिक्षा से जुड़े मनोवैज्ञानिकों और नीति.निर्धारकों के सामने यह बड़ी चुनौती है। इस गंभीर मुद्दे पर अविलंब सोच बनाने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक- विशेष गुप्ता
साभार- जागरण
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