मानव संसाधन विकास मंत्री की अध्यक्षता में आयोजित केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक में ऐसे कोई फैसले नहीं लिए जा सके जिन्हें उल्लेखनीय कहा जा सके। ले-देकर इसी में सहमति बनी है कि पांचवी और आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाओं के बारे में फैसला राज्य सराकर करेगी। इसी तरह आठवी कक्षा तक किसी को फेल न करने की नीति में फेरबदल करने का अधिकार भी राज्यों पर छोड दिया गया। यह सब तय करने में तो राज्य सरकारें पहलें से ही समर्थ थी। अच्छा होता की इस बारें में पहले ही फैसला कर लिया जाता ताकि इस बैठक में शिक्षा से जुडे अन्य गंभीर मसलों पर आम राय हासिल की जा सकती। इसी बैठक में सीबीएसई की दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा फिर से अनिवार्य बनाने पर भी फैसला होना था, लेकिन किन्ही कारणो सें नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका। अब इस बारे में फैसला करने का अधिकार मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर छोड दिया गया। उसे जल्द ही न केवल इस मामले में ठोस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा, बल्कि अन्य मामलों को भी अपने एजेंडे में लेना होगा। उसके सामने चुनौती केवल पठन-पाठन के स्तर को बेहतर बनाने और तनावमुक्त माहौल में शिक्षा प्रदान करने की ही नहीं, बल्कि नई शिक्षा नीति तय करने की भी हैै कायदे से अब तक नई शिक्षा नीति का निर्माण हो जाना चाहीए था, लेकिन अभी तक यही तय नहीं हो पाया कि इस नीति का जो मसौदा टीएसआर सुब्रमण्यम नें तैयार किया था उसके बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय किस नतीजे पर पहुंचा है? ऐसी चर्चा है कि नई शिक्षा नीति का मसौदा नए सिरे से तैयार किए जाने की पहल हो सकती है। पता नहीं सच क्या हैं, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है कि नई दिशा नीति बनाने के वादे के साथ सत्ता में आई सरकार ढाई साल बाद भी एक तरह से जहां की तहां खडी हैं।
नई शिक्षा नीति की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि अभी 1986 में बनीं और 1992 मे संशोधित नीति पर अमल हो रहा है। एक अर्से से यह महसूस किया जा रहा है कि हाल के समय में आए बदलाव को देखते हुए शिक्षा नीति में संशोधन-परीवर्तन की जरूरत हैं यह ठीक नहीं है कि इस आवश्यकता की पुर्ति में अनावष्यक देरी हो रहीं हैं। इस मामले में और अधिक देरी इसलिए स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि पठन-पाठन के तरीके और पाठ्यक्रम का स्तर ऐसा नहीं है जो समाज और देश की आवश्यकता के अनुरूप हो। यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि शिक्षा मंहगी तो हो रही है, लेकिन छात्रो के स्वाभावकि विकास में उपयोगी नहीं साबित हो रहीं हैं इसके अतिरिक्त उन्हें तनावग्रस्त करने वाली भी साबित हो रही है। यह ठीक है कि पाठ्यक्रम और पठन-पाठन के तौर तरीको पर सहमति बनाना एक कठिन काम है, लेकिन इतना भी दुष्कर नहीं कि किसी नतीजे पर ही ना पहुंचा जा सकें। अच्छा होगा कि केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड में विचार-विमर्श की प्रक्रिया तेज हो, क्योंकि यदि जल्द ही नई शिक्षा नीति सामने नहीं आ सकी तो फिर उस पर सही नीति से अमल में भी मुश्किलें आएंगी। वैसे भी केवल नई शिक्षा नीति बन जाने के उद्देेशय की पूर्ति नहीं होने वाली नहीं है। बात तो तब बनेंगी जब उस पर सहीं ढंग से अमल हो। चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है इसलिए केन्द्र और राज्य दोंनो को उसमें सुधार की तत्परता और गंभीरता दिखाने की जरूरत हैं
साभार- दैनिक जागरण
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