गिरीश्वर मिश्र का प्रशंसनीय आलेख ‘संस्कृत की महत्ता समझने का समय’ पढ़ा। विक्टर ह्यूगो ने लिखा है, धरती पर कोई शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया है। संस्कृत ऐसा ही विचार, अथवा विचार समेटे हुए ऐसी ही भाषा है, जिसका समय आ चुका है। अब अंग्रेजी या वर्तमान अन्य कोई विश्वभाषा उसके मार्ग के आड़े नहीं आ सकती। नासा जो छठी पीढ़ी का सुपर कंप्यूटर विकसित कर रहा है, छह साल में वह दुनिया के सामने होगा। और वह संस्कृत-आधारित है। तब विश्व में एक भाषा-क्रांति होगी, जिसका नेतृत्व देववाणी करेगी। अंग्रेजी जैसी अवैज्ञानिक भाषा जो राजनीतिक कारणों से तीन सदियों से दुनिया पर राज कर रही है, वह वहां होगी, जहां उसे होना चाहिए। नासा के प्रमुख वैज्ञानिक रिग ब्रिक्स ने 1990 में कहा था कि संस्कृत इस गृह यानी पृथ्वी की एकमात्र वैज्ञानिक भाषा है। रदरफोर्ड, नील बोर, श्रोदिंजर, हैजनबर्ग तथा आइंस्टीन जैसे नोबेल-विजेता वैज्ञानिकों ने सदा संस्कृत को विज्ञान का खजाना बताया। उसके ग्रंथों से अपने शोधों के लिए नवीन विचार ग्रहण किए। भारतीय नोबेल विजेता सर सीवी रमण ने संस्कृत आयोग (1957) के सम्मुख संस्कृत को भारत की राजभाषा बनाने की मांग रखी थी। बाबा साहब ने तो इसके लिए संविधान सभा में संशोधन प्रस्तुत किया था। किंतु कुछ लोगों के कुतर्क-पूर्ण संस्कृत-विरोध के चलते वह अस्वीकृत हो गया। नेहरू संस्कृत को ‘सांप्रदायिक’ मानते थे। कोई इनसे पूछे, क्या संस्कृत-विहीन भारत की कल्पना की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के अपने एक निर्णय में संस्कृत को भारत की आत्मा एवं विवेक की वाणी बताया है। वह प्राइमरी कक्षाओं से ही संस्कृत-शिक्षण चाहता है। देश संस्कृत की अब और ज्यादा उपेक्षा सहन नहीं कर सकेगा। यह सुखद है कि हमारे प्रधानमंत्री एवं उनके सहयोगी संस्कृत-प्रेमी हैं।
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