चंद रोज बाद होने वाली केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (केब) की बैठक में सीबीएसई की 10वीं की बोर्ड परीक्षा को फिर से अनिवार्य करने पर विचार किया जाना है। फिलहाल सीबीएसई को छोडकर राज्य स्तरीय बोर्डो में 10वीं की परीक्षा वैकल्पिक नहीं है। सीबीएसई में करीब में करीब 70 फीसदी छात्र 10वीं की बोर्ड परीक्षा नहीं देते है। उम्मीद है कि छः वर्षो के बाद फिर से राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस शुरू होगी कि स्कूली बच्चों को आखिर किस कक्षा तक परीक्षा की अनिवार्यता से मुक्त रखा जाए और किस कक्षा से उन्हें परीक्षा के तनावों से गुजरने के लिए समक्ष समझा जाएं...?
मासूम स्कूली बच्चों को बोर्ड परीक्षा के तनावों से मुक्त करने की मांग कई दशकों से उठ रहीं थी। इसके मूल में एक प्रमुख कारण 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं में हर बरस असफल होने वाले कई विद्यार्थियों की आत्महत्या की घटनाएं रही हैं। शिक्षाविदों का एक बडा वर्ग यह मानता है कि फेल होने से बच्चों के मन पर बुरा असर पडता है। हर बच्चा सभी विषयों में होशियार हो यह जरूरी नहीं। देश में स्कूली शिक्षा के दौरान पढाई छोडने वाले बहुत से बच्चे सिर्फ फेल होने के कारण ऐसा कारते हैं।
युपीए-2 के कार्यकाल में स्कूली शिक्षा में एक व्यापक बदलाव लाने के लिए शिक्षा को अधिकार अधिनियम, यानी ’आरटीई ऐक्ट’ पारित किया गया था। इस अधिनियम की धारा-16 के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी बच्चा प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी भी कक्षा में न तो अनुत्तीर्ण किया जाएगा और न ही स्कूल से बाहर किया जाएगा। कक्षा एक से आठवीं तक सभी स्कूली छात्र हर साल अगली कक्षा में पहुंच जाएंगे। हर साल होने वाली वार्षिक परीक्षा की जगह सतत व व्यापक मुल्याकंन पद्धति (सीसीई) को लाया गया, जिसमें स्कूलों में बच्चों की मौजूदगी के हर पहलू और उनकी प्रत्येक गतिविधि के मूल्यांकन की बात की गई थी।
इस नई पद्धति में बच्चों के ऊपर से वार्षिक परीक्षा का बोझ समाप्त करके साल भर सतत रूप से उसका मूल्यांकन करना था। इस मूल्यांन मे शिक्षा से इतर गतिविधियों जैसे खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, सामाजिक कार्यो को भी शामिल किया गया था। सीसीई के अंतर्गत विद्यार्थियों को अंको के स्थान पर ग्रेड दिए जाते है, जो बच्चों के काम काज करने की क्षमता, समूह क्षमता, परिश्रम, सहनशीलता, वक्तृत्व कला और सामान्य व्यवहार पर भी आधारित होते हैं।
वर्ष 2010 और 2011 में जब आरटीई के तहत बच्चों को आठवीं तक फेल ना करने और सीबीएसई बोर्ड की 10वीं की परीक्षा केा वैकल्पिक करने के क्रांतिकारी फैसले लिए गए, तो शिक्षाविदों का एक बडा वर्ग इस नीति के प्रति बहुत उत्साहित देखा गया था। जाने-माने शिक्षाविद् कृष्ण कुमार का कहना था कि हर बच्चा हर विषय में फेल नहीं होता। विश्व स्तर पर शिक्षा शास्त्र भी यही मानता हैं। हम और आप अंग्रेजी में अच्छे और गणित मे कमजोर हो सकते है। आठवीं तक बच्चों को फेल नहीं करने के पीछे यही औचित्य था कि हर बच्चे को उसकी रूचि के विषयों में श्रेष्ठ बनने में जोर दिया जाएं।
आरटीई एक्ट, 2009 के तहत आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल न करने का फैसला देश के लिए नया नहीं था। करीब 28 राज्यों में यह किसी न किसी रूप में चल ही रहा था। बंगाल, पंजाब और त्रिपुरा में कक्षा-चार तक, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखंड, और झारखंड में कक्षा-पांच तक और आंध्र प्रदेश मे तो कक्षा-नौ तक फेल नहीं करने की नीति चल रहीं थी। बच्चों को आठवीं कक्षा तक फेल न करने की नीति का वर्ष 2012 मे जब मूल्याकंन किया गया, तो उसमें अनेक कमियां उजागर होने लगीं। केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की 59वीं बैठक में, जो साल 2012 में हुई थी, राज्यों की ओर से सामूहिक रूप से उक्त नीति के प्रति विरोध दर्ज किया गया। क्योंकि नौवीं कक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की तादाद तेजी से बढती देखी गई थी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस विरोध के दबाब मे आकर गीता मुक्कल (हरियाणा की तत्कालीन शिक्षा मंत्री) समिति की नियुक्ति की, जिसनें 2014 में आठवीं तक के बच्चों को फेल न करने की नीति को क्रमिक रूप से वापस लेने की सिफारिश की थी।
एनडीए सरकार की गीता मुक्कल समिति की सिफारिशों को सीधे लागू करने की बजाय राज्य सरकारों की राय फिर से लेने का फैसला किया। 22 राज्य सरकारों ने अपनी राय इस मुद्दे पर प्रेषित की, जिसमें 18 राज्य आठवीं तक स्कूली बच्चों को फेल न करने की नीति को बदलने के पक्ष में थे और सिर्फ चार राज्य- महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक नीति को बदलने के विरोध में थे।
नई शिक्षा नीति का प्रारूप बनाने के लिए एनडीए की सरकार नें तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने जिस पांच सदस्यीय टीएसआर सुब्रमण्यम समिति का गठन किया, उसनें भी आठवीं तक स्कूली बच्चों को फेल न करने के पक्ष और विपक्ष के सभी तर्को पर विचार किया और राष्ट्रीय स्तर पर स्कूली शिक्षा से जुडे सभी पक्षों की राय जानने की कोशिश की। सुब्र्रमण्यम समिति का विचार था कि स्कूली बच्चों को फेल न करने की नीति सिर्फ पांचवी कक्षा तक रखी जाएं, जब बच्चा 11 वर्ष की आयु तक पहुंच जाएगा। छठी से आठवीं कक्षा तक (11 से 14 वर्ष की आयु में) जो बच्चे न्यूनतम स्तर से नीचे हों, उन्हें फेल करने की नीति फिर से लागू की जाए। मगर उन्हें फेल करके अगली कक्षा में जाने से पूर्व हमे ऐसे बच्चों को सुधारात्मक कोचिंग देकर परीक्षा देने के और अवसर देने चाहिए। समिति का स्पष्ट कथन था कि फेल करना एक अतिंम उपाय हो सकता है, जिससे पहले कमजोर बच्चों को दो अतिरिक्त अवसर जरूर देने चाहिए।
केब की अगली बैठक में सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा को अगर अनवार्य करने का फैसला अगर हो जाता है, तो फिर मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर राज्य सरकारों का दबाब पडेगा कि आरटीई के तहत आठवीं तक फेल ना करने की नीति को वापस लिया जाएगा। सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशें भी यही है कि पांचवी कक्षा तक ही स्कूली बच्चों को फेल ना किए जाए।
हमारी स्कूली शिक्षा फिलहाल अपने यज्ञ-प्रश्नों से मुक्त होने वाली नहीं है। बच्चों से ठसाठस भरी कक्षाओं में गिनेे-चुने पस्त हिम्मत शिक्षकों से यह उम्मीद व्यर्थ होगी कि वे सतत और व्यापक मूल्यांकन के तहत हर बच्चे पर ध्यान देंगे और हर माह अनेक पैमानों पर उसका मुल्यांकन करेंगे। ऐसे हालात मे न फेल करने की नीति से कोई सकारात्मक नतीजे नहीं निकले। आरटीई एक्ट नें स्कूली शिक्षा में बुनियादी सुधारांे के लिए शिक्षकों की गुणवत्ता बढाने, नियमित मूल्यांकन करने और भौतिक सुविधाओं में व्यापक सुधार के मुद्दे जोर-शोर से उठाए थे। लेकिन फिर से बोर्ड परीक्षाओं में उत्र्तीण होने को सिर्फ अनिवार्य करके स्कूली शिक्षा में चल रही चहुंमुखी असफलताओं पर परदा नहीं डाला जा सकेगा।
लेखक- हरिवंश चतुर्वेदी
साभार- हिन्दुस्तान
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