फर्क कीजिए, एक बच्चा दसवीं की परीक्षा में तो ए-ग्रेड या 95 फीसदी अंक लाता है, अगली कक्षा में प्रवेश भी पा लेता है, लेकिन 11वीं की पढाई शुरू होते ही उसके चहरे से ए-ग्रेड की चमक गायब हो जाती हैं। कभी फिजिक्स और मैथ भारी दिखते है, तो कभी मुद्रा और बैंकिंग। पता चलता है कि यह मामला जटिलता का नहीं, बल्कि बच्चे के आधारभूत विकास का है। सीबीएसई की दसवीं में बोर्ड परीक्षा को वैकल्पिक बनाने या ना बनाने की बहस के पीछे की सोच को समझने के लिए इस जमीनी हकीकत को समझना जरूरी है। 2010 में बोर्ड परीक्षा को वैकल्पिक बनाने का फैसला लागू होने के साथ ही इस पर बहस चल पडी थी। नियम का दुरूपयोग हुआ। ज्यादा तर निजी स्कूलों नें इसे अपने रिजल्ट चमकाने का जरिया बना लिया। निष्पक्ष मूल्यांकन की व्यवस्था बुरी तरह बिखरी और छात्र अपनी मेघा की असलियत आंके बिना चमकता चेहरा लेकर आगे बढ गए। इसका असल अहसास बारहीं बोर्ड के नतीजों ने दिखाया। ऐसे छात्र इंजीनियरिगं और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में भी बेहतर नहीं कर सके और तनाव के शिकार हुए। दरअसल, जिस मकसद से सीबीएसई नें व्यवस्था लागू की थी, वह पूरा नहीं हुआ। होम एक्जाम सिद्धान्त रूप से बेहतर है और दुनिया के कई देशों मे लागू भी है, लेकिन उनके यहां की व्यवस्था अपने बोर्डो जैसे नहीं है। वहां पारदर्शिता है, जिसने इस सिस्टम को मजबूती दी है, और हमारे यहां निष्पक्ष मुल्यांकन ना होने के कारण ही इस पर सवाल उठे है। तनाव दूर तो नहीं हुआ, यह दो साल आगे जरूर खिसक गया। अब इसी फैसले को बदलने की तैयार चल रही है, सीबीएसई फिर से बोर्ड परीक्षाओं को जरूरी बनाने जा रहा है।
’तनाव’ कर परिभाषा भी नए सिरे से सोचने की जरूरत है। जिस तनाव के तर्क पर साल 2010 में यह व्यवस्था लागू हुई थी या जिस तनाव की हम बार-बार बात करते है, हमें उस तनाव की व्यवहारिक परिभाषा गढ़नी होगी। इसे समझना होगा। हम शायद भूल गए है कि दसवीं में हम जिस चुनौतियों को किशोरवय कहकर कठिन मान रहें है, दरअसल वें चुनौतियां तो वैश्विक स्तर पर कठिन बन चुकी है। हम यह भी भूल गए की दसवीं की परीक्षा भविष्य का आधार तय करती है और चुनौती की असल शुरूआत यहीं से होती है। ’तनाव’ शब्द की नई व्याख्या इसी संदर्भ मे करनी होगी। इसके नकारात्मक असर की बात करने के बजाय यह सोचना होगा कि यह तनाव लेना कोई उत्पादकता बढाने वाला, मस्तिस्क को इस कदर चार्ज करने वाला भी हो सकता है, जो काम करने की गुणवत्ता को कई गुना बढा जाता हैं।
कक्षा आठ तक के बच्चों को फेल ना करने के एक अन्य फैसले को भी इसी बहस के आलेख मे देखा जाना चाहिए। यहां भी वहीं हुआ कि जिसमें आठवीं की काबिलियत नहीं है वे नौवीं और दसवीं तक पहुंच गए। उसके बाद ठहर गए। दरअसल, हमारी असल चुनौती व्यवस्था बदलने, नई व्यवस्था बनाने की नहीं हैं। असली चुनौती परीक्षा को हौआ बनाने की उस सेाच को खत्म करने की है, जो परीक्षा को दौर आने के साथ ही हमारे बच्चों और अभिभावकों तक पर हावी हो जाता है। आंतरिक और बाह्य, दोनों ही कारक इस आग मे घी का काम करते है। हमें इन्ही कारको को खत्म करना होगा, जो पूरे शिक्षा तंत्र की नए तरह से व्याख्या और पुनर्रचना से ही संभव है। यहां एचपी लवक्राफ्ट की एक उक्ति याद आती हैं-’मनुष्य का सबसे पुराना और मजबूत भाव भय है।’ किसी बदलाव के पहले और बाद में हमें बस इस उक्ति के असल भाव को समझ लेना होगा।
साभार- दैनिक हिन्दी हिन्दुस्तान
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