
भारत सरकार द्वारा देश के विश्वविधालयों को स्पद्र्धा-योग्य बनाने के प्रयासों को ब्रिटेन की ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ द्वारा घोषित 2020 की विश्वविधालय रैंकिंग सूची से धक्का लगा है। पिछले एक दशक से मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा अनेक प्रयास किए जा रहे थे, ताकि भारत के नामचीन विश्वविधालय शीर्ष स्तर पर जगह बना सकें। पिछले साल लागू की गई इंस्टीटयूट आॅफ एमीनेंस (आईआई) नामक बहुचर्चित योजना का तो यह प्रमुख लक्ष्य था। कोशिश थी कि देश के अच्छे विश्वविधालयों को ज्यादा स्वायत्तता दी जाए और केंद्र सरकार द्वारा संचालित उच्च शिक्षण संस्थानों को दस वर्षों के लिए एक हजार करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी जाए।
बहरहाल, विश्व स्तर पर शीर्ष विश्वविधालयों की रैंकिंग मुख्यतः तीन संस्थाओं द्वारा की जाती है- टाइम्स हायर एजुकेशन (टीएचई), शंघाई जियोटोंग यूनिवर्सिटी (एसजेटीयू) और क्विरैली सायमंड्स (क्यूएस)। इनमें सर्वधिक लोकप्रियता व मान्यता टाइम्स हायर एजुकेशन संस्था की है, जो पिछले 16 वर्षो से इस संचालित करती रही है। बड़े अफसोस की बता है कि वर्ष 2020 की रैंकिंग में 2012 के बाद पहली बार शीर्ष 200 विश्वविधालयों में किसी भारतीय विश्वविधालय का नाम नहीं है। टाइम्स रैंकिंग में वैसे तो दुनिया के शीर्ष 1300 विश्वविधालयों में भारत के 56 नाम शामिल हैं और संख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में पांचवां व एशिया में तीसरा स्थान है।
गौरतलब है कि 2020 की टाइम्स रैंकिंग में भारत का ख्याति प्राप्त संस्थान इंडियन इंस्टीटयूट आॅफ साइंस 50 स्थान नीचे गिर गया है। 1909 में जमशेदजी टाटा और मैसूर नरेश के प्रयासों से स्थापित इस संस्थान की रैंकिंग 2019 में 251-300 के समूह में थी, जो इस बार 301-350 के समूह में पहुंच गई है। इस संस्थान के अलावा आईआईटी-रोपड़ को 301-350 और आईआईटी-इंदौर को 351-400 के समूह में रैंकिंग दी गई है। अगर पुराने और प्रतिष्ठित आईआईटी को देखें, तो आईआईटी-मुबई, आईआईटी-खड़गपुर और आईआईटी-दिल्ली को 401-500 के ग्रुप में शामिल किया गया है। पुराने आईआईटी को नए आईआईटी कड़ी चुनौती दे रहे हैं।
टाइम्स की रैंकिंग में शुरू से अमेरिकी यूनिवर्सिटियों का दबदबा रहा है। इस बार भी शीर्षस्थ 10 यूनिवर्सिटियों में सात और शीर्षस्थ 20 यूनिवर्सिटियों में 14 अमेरिका की हैं। शीर्ष 200 में अमेरिका की 60 यूनिवर्सिटी शामिल है। शीर्ष 200 में एशिया से पहला स्थान चीन का है, जिसके 24 विश्वविधालय इसमें शामिल हैं।
टाइम्स के रैंकिंग में ब्रिटेन की आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी आम तौर पर विश्व में पहले स्थान पर रही है। 2020 में भी इसे पहला स्थान मिला है।
हर वर्ष टाइम्स तथा अन्य दो रैंकिंग जारी होने पर हमें निराश होना पड़ता है। यह गिरावट हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और बौद्धिक क्षेत्र में बढ़ती हुई ख्याति को चोट पहुंचाती है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने कार्यकाल में कई बार यह मुद्दा उठाया था। वह भी एक चिंतनीय मुद्दा है कि भारत में शिक्षित अनेक भारतीय प्रोफेसर अमेरिकी विश्वविधालयों में शीर्ष पर रखे जाते हैं, लेकिन जिन भारतीय विश्वविधालयों से पढ़कर उन्होंने नाम कमाया, वे रैंकिंग में पीछे रह जाते हैं? इसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए। भारतीय उच्च शिक्षा को उबारने के कई प्रयास पिछले वर्षों में किए गए है। इनमें एक प्रमुख प्रयास था वर्ष 2016 में शुरू की गई एनआईआरएफ रैंकिंग, वह विश्वस्तरीय तो नहीं है, लेकिन इसे शुरू करने का मुख्य लक्ष्य भारतीय शिक्षण संस्थानों को कुंभकर्णी नींद से जगाकर प्रतिस्पद्र्धा के लिए तैयार करना है।
एक प्रश्न यह उठ सकता है कि भारतीय उच्च संस्थानों के लिए राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय रैंकिंग में भाग लेना क्यों जरूरी है? ऐसा करने से उन्हें क्या मिलेगा? अगर गइराई से देंखे, तो मालूम पड़ेगा कि विश्व स्तर पर तेजी से बढ़ रहे विधार्थियों के आव्रजन का निर्णायक घटक रैंकिंग है। दुनिया में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्थाओं का तेजी से विकास हो रहा है। रैंकिंग की लोकप्रियता का दूसरा प्रमुख कारण है दुनिया भर की प्रतिभाओं को अपने यहां आकर्षित करना। कहा जाता है कि आज के युग में पूंजी और श्रम के लिए विश्वयुद्ध नहीं होते हैं, लेकिन योग्यता या योग्य प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मुख्य शक्तियां प्रतिस्पद्र्धा करती हैं। ऐसे में रैंकिंग का महत्व बहुत बढ़ जाता है। सवाल यह उठता है कि हमारे विश्वविधालय फिसड्डी क्यों हैं? आईआईटी, आईआईएम व केंद्रीय विश्वविधालयों में वित्तीय संसाधनों की कमी नहीं रहती, लेकिन वे रैंकिंग में क्यों पिछड जाते हैं? शिक्षण, अनुसंधान, अधोगों से होने वाली आय को भी रैंकिंग निकालते समय ध्यान में रखा जाता है। उदाहरण के लिए, टाइम्स रैंकिंग में 30 प्रतिशत शिक्षण गुणवत्ता, 60 प्रतिशत अनुसंधान और उद्धरण पर, उधोगों से आय के 2.5 फीसद और अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए 7.5 प्रतिशत दिए जाते हैं।
2020 की टाइम्स रैंकिंग का विश्लेषण करने पर मालूम पड़ता है कि भारत के उच्च शिक्षा संस्थान पढ़ाई-लिखाई और उधोगों से जड़ाव के मामले में तो अच्छा प्रदर्शन करते है, लेकिन अनुसंधान के क्षेत्र में मात खा जाते हैं। एक ओर, भारतीय प्रोफेसरों में शोध पत्र प्रकाशित करने की उधमिता और उत्साह कम है, तो दूसरी ओर, उनके शोध पत्रों के उद्धरण अपेक्षाकृत बहुत कम दिए जाते है। इस पर अगर हम शिक्षकों की राय जानने की कोशिश करें, तो वे संसाधन के अभाव व कार्य की अधिकता को मुख्य कारण बताते हैं। कई दशकों से शोध कार्यो की उपेक्षा व संसाधनों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ते दबाव को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है।
ळालांकि दुखी और निराश होने से काम नहीं चलेगा। केंद्र और राज्य सरकारों को मिल-जुलकर उच्च शिक्षा को प्राथमिकता देनी पडेगी। उच्च शिक्षा पर सकल राष्ट्रीय आय का एक से 1.5 प्रतिशत खर्च करने से काम नहीं चलेगा, इसे अगले तीन वर्षो के भीतर 2.5 प्रतिशत करना होगा। अभी हाल में कस्तूरीरंगन कमेटी ने नई शिक्षा नीति के प्रस्तावित मसौदे में शोध और अनुसंधान पर 20000 करोड़ रुपये की वार्षिक राशि खर्च करने का प्रस्ताव रखा है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। हमें अच्छे यूनिवर्सिटी शिक्षकों और शोधकर्ताओं को प्रतिष्ठाजनक स्थान देना होगा और देखना होगा कि वे देश में ही रहकर शिक्षण, शोध व अनुसंधान के काम करें। उनका पलायन किसी भी हालत में रोकना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार है)
लेखक- हरिवंश चतुर्वेदी, डायरेक्टर, बिमटेक
साभार- हिन्दुस्तान
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